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________________ चोर सात प्रकार के है १ ) जो स्वयं चोर है २) चोर को सब प्रकार की सामग्री देकर मदद करने वाला ३) चोर को चोरी की सलाह देनावाला मंत्री ४) चोरी की योजना का भेद जाननेवाला ५) चोरी का माल लेनेवाला ६) चोर को भोजन आदि देनेवाला ७) चोर को आश्रय देनेवाला - ये सात प्रकार के चोर बताये है। चोरी की सजा शारीरिक पराधीनता, जेल की सजा, अंगोपाग की विकृति । भयंकर चोरी की सजा तो तिर्यंच गति या नरकगति भी होती है । कर्मके हिसाब से गति मिलती है। नरक गति में तो परमाधामि राक्षस तैयार है, वे महाक्रूर हैं उन्हे तुम्हारे पर कोई दया नही आयेगी जैसे कसाई गाय-बकरी आदि को दया रहित होकर काटता है उसी प्रकार नरक गति में तुम्हारी खैर नहीं, तेल में भजिये की तरह तल देंगे, पत्थर पर पटकेंगे ऐसे अनेक असहनीय दुःख तुम्हे अपने किये हुए पापों के स्वरुप झेलने पड़ेंगे | २४) अब्रह्म पाप का फल - ब्रह्मदत चक्रवर्ती लक्ष्मणा साध्वी को तिर्यंच की कामक्रीडा देखकर ही मानसिक विषय वृत्ति उत्पन्न हुई थी। साधु दिवाल पर लगे स्त्री चित्र आदि नहीं देखते लकडी की बनी पुतलियों को हाथ नहीं लगाते, ये जो पुतली जड़ है कई बार काम वासना को उत्तेजित करने में निमित्त बन जाती है। जड़ पुतली, चित्र आदि का देखना भी निषेध है तो फिर सजीव स्त्री सौंदर्य आदि को देखना या स्पर्श करना कितना खतरनाक सिद्ध हो सकता है ? इसलिये आगम में स्त्री तो क्या स्त्री के कपड़ो का स्पर्श भी वर्जित है । मासक्षमण तपस्वी संभूति मुनि को चक्रवर्ती सपत्नीक वंदन करने आये । वंदन करने वक्त पटरानी को ध्यान न रहा और उनके बालका स्पर्श मुनिराज से हो गया । मात्र सर्पश से मासक्षमण तपस्वी मुनि काम वासना लिप्त होकर नियाणा करते हैं कि अगले भव में मै स्त्री रत्न का भोगी बनुं । साथीमुनि ने खूब समझाया पर न सुनी उन्होंने और अगले भव में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के रुप में जन्म लेकर अनेक पाप का सेवन कर सातवी नरक में उत्पन्न हुए। एक क्षण के स्पर्श के इतने भयंकर परिणाम । (31) प्राणी को उत्पन्न करनेवाला मार्ग या स्थान योनि होता है। इस योनितंत्र में स्वभाव से अनेक सूक्ष्म जीव पैदा आंखे से देखे भी नही जा सकते - मैथुन क्रीडा में इस प्रकार के जीवों का नाश होता है । योगशास्त्र में द्रष्टांत दिया है कि जिस प्रकार से रुई भरी हुई नली में अति गरम सली डाली जाये तो सब रुई जलकर भस्म हो जाती है, इस प्रकार से स्त्री की योनि में अनेक सूक्ष्म जंतु होते है, वे पुरुष के संसर्ग मे तीव्र संघर्ष प्रायः मर जाते है। जिन आगमों में लिखा है कि दो लाख से लेकर नव लाख तक अत्यंत सूक्ष्म त्रस जीव वहाँ उत्पन्न होते है । वे प्रायः पुरुष के संसर्ग में मरते है, कोईक भाग्यवश बाद जन्म लेता है। इस तरह मैथुन सेवन में अति हिंसा है। व्रत भंग में अन्य व्रतो का उल्लंघन भी होता है । वरं ज्वलदयस्तम्भ - परिरम्भो विधीयते । न पुनर्नरकद्वार- रामाजधन-सेवनम् ॥ आग से त हुए लोहे के स्तंभ से आलिंगन करना अच्छा है पर नरक के द्वार सम स्त्री का संग करना बूरा है । तीव्र कामी परस्त्री गामी नरक में जाता है। जहाँ लोहे के तपे हुए लाल खंबे से आलींगन कराया जाता है। छेदन, भेदन, काटना आदि अनेक महा वेदना में से गुजरना पड़ता है। परमाधमीओं के हाथ से बचना अति मुश्किल होता है। २५) परिग्रह पाप का फल मम्मणसेठ के पास क्या कमी थी ? अखूट धन संपति दो सोने के हिरे, मोती, रत्नों से सजे हुए बैल की जोड़ी। जिसमें सिर्फ एक शींगडा बाकी था। उस पर रत्न नहीं जड़े थे। मगध को सम्राट श्रेणिक भी उसकी ऋद्धि देखकर दंग रह गया । इतना सब होते हुए भी मम्मण ने जिदंगी भर क्या खाया ? सिर्फ तेल और चने या चवले । अरर ! इतना अन्न होते हुए भी बेचारा खा नहीं सका, लक्ष्मी होते हुए भी उसको भोग न सका । मम्मणसिंह के जीवन में देखा जाय तो उनके जीवन में इच्छाएं ज्यादा है, लोभ का कोई अंत नही है । हे प्रभु! मुझे नरक नहीं माना है !!!
SR No.009502
Book TitleMuze Narak Nahi Jana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprabhvijay
PublisherVimalprabhvijayji
Publication Year
Total Pages81
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size2 MB
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