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________________ आशा आकाश की तरह अनंत है। वस्तु मर्यादित है । संसार में ऐसा तो शक्य नहीं कि एक आदमी इच्छा करें और उसे जगतकी सर्व चिज मिल जाये । वस्तुओं की प्राप्ति पूर्व के पूण्योदय से होती है उसमें कोई शंका नहीं है। परंतु, इच्छा तृष्णा, मूर्छा आशक्ति मोहनीय कर्म के उदय से होती है। वस्तु की प्राप्ति और उसका भोग-उपभाग करना दोनो भिन्न है। वस्तु पूर्व के पूण्योदय से प्राप्त होती है। परंतु अंतराय कर्म के उदय से चीज होते हुए भी व्यक्ति दुःखी रहता है। उस चीज का भोग-उपभोग नहीं कर सकता । साधु महाराज को लडू वहोराने के पूण्य से मम्मण सेठ का ऋद्धि सिध्धि प्राप्त हुई, परंतु महाराज के पास से लड्डूवापस लेने के कारण भयंकर अंतराय कर्म बांधा । यह अंतराय कर्म के कारण वह सारी जिंदगी तेल और चने के अलावा कुछ भी खा नहीं सका। उसका पूण्योदय था पर साथ में पाप का भी तीव्र उदय था । लक्ष्मी थी परंतु मूर्छा-इच्छा उससे भी अधिक थी। ऐसी मूर्छा उसे सातवी नरक में ले गई। क्या फायदा हुआ ? क्या लाभ हुआ ? सुंदर किंमती दुर्लभ मनुष्य जन्म भी लक्ष्मी के पीछे सर्वथ हार गया। कुछ धर्मध्यान भी न कर सका । गति बिगडी, जन्म बिगडा, मृत्यू भी बिगडा और मिला क्या नरक गति। बह्वारंभ परिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः । (तत्वार्थ सूत्र) अतिशय आरंभ और अत्यंत परिग्रह के संग्रह से नरकगति को आयुष्य बंध होता है। ऐसे प्रकार के बहुत आरंभ समारंभ कर महापरिग्रहधारी को नरकगति में जाना पड़ता है। शास्त्रो में तो यहाँ तक कहा है कि यदि चक्रवर्ति भी संसार छोडकर चारित्र का स्वीकार न करें तो उसे नरक में जाना पड़ता है। इसलिये कहा है कि चक्रेश्वरी सो नरकेश्वरी, राजेश्वरी सो नरकेश्वरी। २६) तिलक शेठ अचलपर शहरमें तिलकसेठ किराणा का व्यापार करते थे, अगले साल अकाल होगा ऐसा ज्योतिष का वचन सही जानकर बहुत ज्यादा अनाज संग्रहित किया । गोडाऊन, घर, भूमिग्रह, सब जगह अनाज से भर दी। अपनी पूंजी से जितना अनाज खरीद सकते थे, उतना लेकर भर लिया। इसके पीछे एक ही विचारधारा काम कर रही थी कि अगले साल अकाल के समय में दोगुना-चारगुना कमाई कर लुंगा । परंतु भविष्य किसने देखा ? दुसरे साल जरुरत के मुताबिक वर्षा हुई। खेतो में फसले बहुत ही अच्छी हुई। सेठ कमाई कर लुंगा । परंतु भविष्य किसने देखा ? दुसरे साल जरुरत के मुताबिक वर्षा हुई । खेतो में फसले बहुत ही अच्छी हुई । सेठ के पास अनाज खरीदने को कोई नहीं आया । वर्षाऋतु के अंत में इतनी मुसलाधार वर्षा हुई की सेठ के गोडाऊन और भूमिगत संग्रहस्थानो में पानी भर गया । सब अनाज सड गया । सेठ को लाखो रुपयों का नुकसान हुआ, सेठ को भारी सदमा पहुँचा और आसक्ति के कारण वे मरकर नरक में गये। २७) नंदराजा: __ पाटलीपुत्र के राजा नंद अति लालची थे। उनको जीवन में एक महेच्छा उत्पन्न हुई कि त्रण खंड का अधिपति बर्नु । उसने आनन फानन लोगों से कर लेना चालु कर दिया। वह अन्य और अनिति से पैसे इकटे करने लगा। उसे पैसे पर अत्यंत मूर्छा थी । चारो तरफ से सोना इकट्ठा कर अपना खजाना भरने लगा। सोने की गिनी और रुपये का चलन । बंद कर चमडे के सिक्के बनाये । ऐसी परिस्थिति में तीव्र लोभी, महापरिग्रही सुवर्णाशक्त नंदराजा के देह में अति भयंकर पीडा आरंभ हुई। अनेक रोग के वे शिकार हुए। इतनी विशाल धनराशी होते हुए भी वे दीन और लाचार बनकर अशरण होकर मृत्यु की शरण में गये । हाय मेरा सोना...मेरे साथ नहीं आयेगा ऐसे दुःखी हुए। ऐसी निराधार परिस्थिति में वे मरे, कैसी दुर्दशा हुई। तीव्र परिग्रह के कारण नरक गति का आयष्य बंध होता है। २८) क्रोध का फल-सुभूम चक्रवर्ति और परशुराम: क्रोध संताप कराता है। परिताप-संताप-पीड़ा-दुःख और आग की तरह जलाता है | चारों तरफ से जलाता है, दाह-ज्वर जैसी क्रोध की स्थिति है। क्रोध सब जीवों को उद्वेग कराता है। घर में क्रोध कोई एक व्यक्ति करता है परंतु उद्वेग सब को होता है। क्रोध सब को डराता है, वैर की परंपरा खडी करता है और सद्गति का नाश करता है। शास्त्रो में दो नाम ऐसे हे जिन्होंने अपने क्रोध के कारण धरती पर हाहाकार मचा दिया । एक सुभूम चक्रवर्ति और दुसरा परशुराम। हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (32)
SR No.009502
Book TitleMuze Narak Nahi Jana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprabhvijay
PublisherVimalprabhvijayji
Publication Year
Total Pages81
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size2 MB
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