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________________ जरा भी झूठ बोलने पर रौखादि नरक मे जाना पड़ता है नहीं तो दुर्गति में जाना पड़ता है तो फिर भगवानके सिन्दांत का विपरीत अर्थ करना, महामृषावादी की तो क्या गति होगी ? हेमचंद आचार्य योगशास्त्र में बिना संकोच कहते हैं कि ऐसे असत्यवादी के लिये निगोद के सिवाय कोई स्थान नहीं। निगोदेष्वथ तिर्यक्ष तथा नरका वासिषु । उत्पद्यन्ते मृषावादप्रसादेन शरीरिण : || झूठ के कारण आने वाले जन्मो में जीव अनंतकाय निगोद में उत्पन्न होता है और अनंतकाल तक जन्ममरण करता रहता है। जहाँ पलक झपकने में लगनेवाले समयमें १७१/२ बार जन्म मरण होता है। ऐसी भयंकर स्थिति में जीव कितना समय यहाँ निकालता है और नरक के फेरे भी करता है। निगोद - तिर्यंच और नरक गति मृषावाद के कारण होती है। २३) चोरी का फल : अभग्नसेन चोर को भयंकर सजा विपाक सूत्र में दुःख विपाक के दुसरे अध्ययन में इस कथा का वर्णन है। पुरिमताल नगरके राजा महाबल थे। नगर के बाहार अमोध दर्शन नाम का बगीचा था। एक प्रभु महावीर गौतम आदि के साथ इस बगीचे मे पधारे। देवताने समवसरण की रचना की और प्रभु ने देशना दी । गौतमस्वामी प्रभु आज्ञा से गोचरी के लिये गये, तब पुरिमताल के राज मार्ग से जा रहे थे तो एक प्रसंग सामने आया - अनेक हाथी-घोडे, राज सैनिक आदि खडे थे, इन सब के बीच एक मनुष्य को स्तंभ से उल्टा लटका रखा था। उसके नाक-कान काट लिये थे। आसपास खडे पहलवान उसे मार रहे थे। उसके बाद उसके आठ काका को मारा | फिर आठ काकीओ को, फिर पुत्र, पुत्रवधुजमाई, पौत्र-पौत्री आदि संबंधिओं को सैनिक ने खूब मारा। उससे भी करुणा जनक स्थिति स्तंभ से बंधे मानव की थी उसे भालो से छेदा जा रहा था, उसका मांस और रक्त उसीको पिलाया जा रहा था। यह कूर प्रसंग गौतम स्वामी ने देखा और उद्गार निकले साक्षात नरक का द्रश्य । समवसरणमें बिराजित प्रभु के पास गौतम स्वामी ने प्रसंग वर्णन किया और पूछा। ये मनुष्य कौन है और इसका इस जन्म का पाप या पूर्वजन्म का ? हे गौतम पुरिमताल नगर के बाहर चोरों की बस्ती है, पहाड़ो के बीच गुफा भी है। इस बस्ती में महाभयंकर चोर विजय रहता है। वह क्रूर, हिंसक, लंपट और शूरवीर भी था। दुसरों की चोरी करना सिखाता था और इन्ही सबमें उसका जीवन व्यतीत हो रहा था। उसकी स्कंदश्री नामकी पत्नी थी जिससे उसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसका नाम अमग्न सेन था और पूर्व भव में अंडे का व्यापार करता था। निहन्न नाम का व्यापारी जिसकी मदद के लिये पांच सौ व्यक्ति थे, जंगल में जाता और पक्षियों के अंडे लाता, बेचता था इस प्रकार के विविध महाभयंकर पाप करता था तो निहन्न अंडवणिका (१000) हजार वर्ष का आयुष्य पूरा कर तीसरी नरक में उत्पन्न हुआ । असंख्यात वर्ष का आयुष्य नरकायु पूर्ण कर विजय चोर के यहाँ भग्न के रुपमें जन्मा हैं। मनुष्य जन्म मिलने पर भी पाप के पूर्वं संस्कार के कारण महाचोर हुआ और पुनः पाप व्यापार करने लगा। पिता की मृत्यु के बाद उसे मुखियां घोषित किया और चोरो का सेनापति बन गया । पिता से ज्यादा बेटा चतुर चोर निकला | पुरिमताल के राजा और प्रजा परेशान हो गई और प्रजा अपनी गुधर लेकर महाबल राजा के पास गये । अभग्नसेन को युक्तिपूर्वक पकड़ा गया और उसे फांसी दी जायेगी। हेगौतम! इस प्रसंग की यह कहानी है। ये अभग्नसेन जो असह्य वेदना झेल रहा है। ये उसके तीव्र पापों का फल है। इस प्रकार भयंकर वेदना झेलता हुआ मरणोपरांत अनेक नीच गतियों में भ्रमण की सजा किये हुए कर्म भोगे बिना नहीं छुटते। हिंसाभयंकर पाप हैं इसमें कोई शंका नहीं हिंसाजनित वेदना कुछ क्षण की है परंतु जो किसी व्यक्ति की संपति छीन लूट लेता है तो वह व्यक्ति जीवन भर दुःखी होता है। आर्तध्यान करता है और कई बार पागल भी हो जाता है। व्यवहार में धन ११ वा प्राण है। है प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (30)
SR No.009502
Book TitleMuze Narak Nahi Jana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprabhvijay
PublisherVimalprabhvijayji
Publication Year
Total Pages81
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size2 MB
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