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________________ १४. पैशून्य चाडी - चूगली, किसी के दोष को अन्य के पास खोल देना, आपस में झगडा कराना । १५. रति- अरति - हर्ष, शोक। इष्ट चीज की प्राप्ति में प्रीति-रति- हर्ष । अनिष्ट चीज मिल जाने से शोक करना । इष्ट चीज की निवृत्ति से दुःख होना । १६. पर परिवाद - अन्य की निंदा और स्व की प्रशंसा अन्य की बात को बढ़ा चढ़ाकर नींदा करना । १७. माया - मृषावाद - कपट सहित झूठ बोलना । १८. मिथ्यात्वशल्य - देव, गुरु, धर्म में यथार्थ श्रद्धा न होना ? जीवाजीव के तत्त्वो में अश्रद्धा होना । जगत के महापुरुष कहते है कि जिस तरह जहर परखा नहीं जाता उसी प्रकार से पाप को भी परखा नहीं जाता । जहर का असर तुरंत दिखता है। जब कि किये हुए पापों का असर कुछ समय बाद या कुछ भवों के बाद दिखाई देता है। इसलिये पापों को भोगने का या करने के बाद छोडने का नहीं होता अपितु पापों तो दूर से ही भांपकर (देखकर) छोड देने के होते है । किचड में पहले पव खराब करो फिर उसे I धोनो का नहीं होता । पाप के बुरे फल इस संसार में रोज देखने को मिलते हैं । दुःखी लोगों को अनेक प्रकार से दुःखी होते देखकर, वे सब दुःख उनके किये हुए पापों का फल है यह जानकर तुरंत ऐसे पाप का आचरण करना हमें त्वरित छोड़ देना चाहिये । जिससे वैसे दुःख सहन करने का मौका ही न आये । गुरुजनों के अनुभव ज्ञान से शास्त्रज्ञान से, उनके पास पाप का स्वरुप, परिणाम, सजा आदि की सर्व हकिकत समझकर पाप करना छोड़ देना चाहिये । पाप न करने की प्रतिज्ञा लेना भी अपने ही हित में है । पानी का बाँध तूट जाय उसके पहले ही उसके आसपास मजबूत पाल बाँध लेना या आग लगने से पहेले ही कुआ खोद लेना ज्यादा अकलमंदी का कार्य है। अन्यथा बाद में करनेवाला कार्य मूर्खता है। इसी प्रकार से जब पाप कर्म उदय में आ गये जीव पाप की सजा भुगतने नरक में परमाधामी देवों के समक्ष पहोंच गया तब क्या धर्म करने बैठोगे ? अब मै ऐसा नहीं करुगा, ऐसा बोलकर उनसे विनंती (23) करोगे तो वह क्या सुनेगा ? क्या उसको अपने पर करुणा भाव आयेगा ? क्या वह अपने को छोड़ेगा ? ना... ना... यह संभव नहीं कि वह छोडे । परंतु परमाधमी कहेगा, भाई आगे से तुम पाप न करना पर अब तक जो किये है उसकी सजा तो तुझे मिलेगी ही । अठारह पाप स्थानक मोक्ष मार्ग की प्राप्ति में अंतराय करनेवाले है । ये पाप मोक्षमार्गरुप धर्मतत्व के धातक और अवरोधक दोनों हे । वे मनुष्य को दुगर्ति में ले जाते है । नरक और तिर्यंच गतिरुप दुर्गति का आयुष्य बंधानेवाला अठारह पापस्थानक साधक मुमुक्षओं को छोड़ देना चाहिये । दिनभर में मैंने मन से कुछ खराब विचार किया हो, जो कुछ बुरा बोला हो और शरीर से जो कुछ पाप किया हो, उसके लिये मैं माफी मांगता हूँ। मिच्छामी दुक्कडम अर्थांत क्षमापना करता हूँ। मेरे सब पाप मिथ्या हो एसी भावना से प्रतिक्रमण प्रारंभ करना चाहिये । पाप त्याग का प्रतिक्रमण होना चाहिये । जो घर में पाप का व्यापार-वाणिज्य हो तो उसमें पुत्र पौत्र को उससे दूर रखकर उन्हे अलग व्यापार सीखना चाहिये ताकि संपूर्णपरिवार धीरे धीरे पाप की कमाई से बच जाये । कालसौरिक नाम कसाई : राजा श्रेणिक के समय यह कसाई रोज ५०० भैसा मारने का व्यापार करता था । उसको पाप से बचाने के लिये श्रेणिक ने उसे सुके कुएँ जिससे वह जीव हत्या न कर सके। वहाँ पर भी वह मट्टी से भैंस जैसी लकीर बनाकर उसको, हाथ से मारता था जैसे वह तलवार से उस पर वार करता हो। इस तरह वह कायिक नही पर मानसिक हिंसा करने लगा। उसका पुत्र सुल था वह बोला पिताजी मैंने प्रभु महावीर देवका उपदेश सुना है, वहाँ करोडों वर्ष उसकी सजा भुगतनी पडेगी । पिता बोला, कुल की परंपरा को त्यागना पाप है । पुत्र सुल ने पिता को समझाया, अगर मै ऐसा पाप करुगा हिंसक वृत्ति वाला अभव्य था । वह यह बात कैसे समझे ? पुत्र सुल कसाई के घर जन्मा था फिर भी प्रभु की देशना सुनकर हिंसा की परंपरा त्याग कर नरक से बच गया। काल सौरिक मरने के बाद सातवी नरक में गया । हम सब जीवों को हिंसा के पाप से बचना चाहिये । हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!!
SR No.009502
Book TitleMuze Narak Nahi Jana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprabhvijay
PublisherVimalprabhvijayji
Publication Year
Total Pages81
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size2 MB
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