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________________ परंतु ऐसा नहीं होता । नरक में कर्म निर्जरा हेतु आलंबन रूप देव, गुरु, धर्म कुछ भी नहीं । पाप कर्म करोगे तो उसकी सजा भुगतने दुबारा जन्म लेना पडेगा। एक ही भव में किये हुऐ अनेक पापों की सजा अनेक भवों तक सहन करनी पड़ती है ? विपाक ग्रंथ के १० वें अध्ययन मृगापुत्र आदि दुःख के अध्याय में पहले भव में जीव पाप करता है और असंख्य भवो तक उसका फल भोगता है। इस तरह एक ही भव में किये हुए भयंकर पाप के दारुण विपाक भवो भवो तक जीव सहन करता है । इस प्रकार पापों के कारण उसका संसार चक्र कभी खत्म नहीं होता। पाप करते वक्त कितना समय लगता है ? उसकी सजा सहने में और उसके बाद की सजा में कितना समय बितता है उसका तो अंदाज भी लगाना मुश्किल है। पाप की प्रवृत्ति सफल होते ही जीव 'खूब अभिमान करता है। राजा श्रेणिक का द्रष्टांत स्पष्ट है। हिरनी के शिकार तीव्र चीकने कर्म बांधकर प्रथम नरक का आयुष्य कर्म निकाचित किया । क्या फायदा हुआ ? अनंत भवों से... वर्षो से .. अनंत समय से जीव पाप करते ही आया है। पाप करने के संस्कार भवोभव की आदत और व्यसन के कारण जोरदार है। इस भव में प्रभु का शरण मिला है, वीतराग का शासन और धर्म प्राप्त हुआ है । सर्वोत्कृष्ट देव, गुरु और धर्म की प्राप्ति होने से कर्म निर्जरा द्वारा कर्म को खत्म कर उससे मुक्त हो जाना चाहिये । अगर इस भव में धर्म का सहारा होते हुए भी कर्म है और दुसरी बाजु नये पाप करने चालू रखेंगे तो उसका परिणाम भव परंपरा और दुःख के सिवाय कुछ नहीं होगा । मन जीते जीत रे, मननी हारे हार, मन लड़ जावे मोक्ष मां रे मन ही नरक मोझार... पाप देखनेवाले व्यक्ति का भय के बदले खुद पाप का भय होना चाहिये । पाप देखने वाला अपना इतना बूरा नहीं करेगा जितना हजार गुना पाप कर्म अपना बूरा हाल करेगा । पाप देखनेवाला हमारे साथ अगले भव में नहीं आनेवाला, किये हुए पाप जन्म जन्मांतर तक आत्मा के साथ चिपक कर रहेते है। पाप कर्म के उदय होते ही नरक, तिर्यंच हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (22) आदि दुर्गति में कई जन्मों तक पाप की सजा भुगतनी पडती है । अपने पाप देखनेवाले व्यक्ति को तो शायद हम डरा सकते है । इसलिये वह हमारा तो कुछ न बिगाड़ सकता, सिर्फ थोड़ी सामाजिक बदनामी कर सकता है । परंतु, बांधे पापो में से, जन्मों जनम तक साथ देनेवाले कर्म, कई वो तक नरक आदि जैसी दुर्गतियोंमे हमे दुःखी करते है । इसलिए सच्चाई इसी में है कि पाप देखनेवाले व्यक्ति से डरने के बजाय, पाप से ही डरना चाहिए । पाप कर्म के बंध रुप १८ पाप स्थानक : १. प्राणातिपात-हिंसा जीव को प्राण से रहित करना, वध करना । छोटे बडे कोई भी जीव को मारना वह हिंसा है । २. मृषावाद - असत्या बोलना, जो है उससे अलग स्वरुप बताना । ३. चौर्य- अदत्तादान - अ अर्थात लेना । किसी को पूछे बगैर लेना, मालिक की आज्ञा के बिना लेना अदत्ता दान - चौर्य कहलाता है । ४. मैथून - अब्रह्म - मिथुन, युगल स्त्री-पुरुष साथ कामक्रीड़ा करना। काम वासना में आशक्त रहना । आत्मा में लीन न रहना । ५. . परिग्रह-धन-धान्य आदि में अत्यंत ममत्व भाव होना । तीव्र इच्छा से संग्रह करना ६. क्रोध - गुस्सा, आक्रोश, कषाय है । पापवृत्ति है । ७. मान-कषायजन्य मद, अभिमान, गर्व पाप है । ८. माया छल-कपट अन्य को ठगना । ९. लोभ - तृष्णा, मोहनीय कर्म के उदय से तृष्णा, अतृप्ति के पापजन्य भाव से धन-वैभव-सत्ता की स्पृहा । १०. राग - प्रेम स्नेह, जड पदार्थो में आशक्ति, आकर्षण ११. द्वेष- तिरस्कार, अप्रियता, बेर-झेर १२. कलह - क्लेश, झगड़ा, वृ १३. अभ्याख्यान आरोप, किसी के उपर झूठा आरोप लगाना । -
SR No.009502
Book TitleMuze Narak Nahi Jana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprabhvijay
PublisherVimalprabhvijayji
Publication Year
Total Pages81
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size2 MB
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