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________________ नेरइया णं भंते! कतोहिंतो उववज्जंति ? गोयमा ! नो नेरइएहिंतो उववज्जंति तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति, मणुस्सेहिंतो उवज्जंति, नो देवॆहिंतो उववज्जंति । भावार्थ : हे भगवान! नारकीओ कहाँ से आकर उत्पन्न होते है ? हे गौतम! नारकीओ नरक में से आकर पैदा नहीं होते, वे तिर्यंचगति से उत्पन्न होते हैं, मनुष्य गति से उत्पन्न होते है, देवगति से उत्पन्न नहीं होते । हे भगवान! नारकीओ क्या सम्यकत्वी, मिथ्यात्वी या सम्यक मिथ्यात्वी होते है ? है गोतम ! सम्यकत्वी होते है मिथ्यात्व होते है और सम्यग्मिथ्यात्वी भी होते है । नेरझ्या णं भंते! किं सायं वेदणं वेदंति, सायसाय वेदणं वेदेंति ? गोयमा ! तिविहंपि वेदणं वेदेंति । हे भगवान ! नारकीओ क्या शाता, अशाता या शाताशाता वेदना सहते है ? हे गौतम तीनों वेदना सहते है। तीर्थंकर के जन्म आदि समयमें शाता वेदना, सिवाय अशाता वेदना, पूर्वभव के मित्र देव या दानव के वचन से मन में शाता, शरीर क्षेत्र से अशाता या उनके दर्शन वचन से शाता और पश्चाताप से अशाता इस तरह शाता अशाता वेदना का अनुभव करता है । चत्वारो नरकद्वाराः, प्रथमं रात्रिभोजनम् । परस्त्रीगमनं चैच, सन्धानान्तकायिके । नरक के चार दरवाजे है, पहला रात्री भोजन, दुसरा परस्त्रीगमन तीसरा बोरा का आचार, चौथा अनंतकाय का भक्षण | नेरइयाणं भंते! केवइकालं ठिई पन्नता ? गोयमा ! जहन्त्रेणं दसवाससहस्साइं उक्कोसणं, तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिझं पन्नता । हे भगवंत ! नारकीओं की स्थिति कितने काल की होती है । से हे गौतम! जधन्य से दशहजार वर्ष और उत्कृष्ट : तैतीस सागरोपम की स्थिति है। (19) सात नरक भूमिओं ने नारकी के निवासों की संख्या पहली में (३०) त्रीस लाख, दूसरी मे २५ लाख, तीसरी मे १५ लाख, चौथी में (१०) दश लाख, पांचवी में ३ लाख, छसी में ९९९९५ और सातवी नरकमें ५ स्थान है । नारकी के जीव आत्मा के वश संयम से नहीं पर आत्मा के अवश-असंयम से उत्पन्न होते है । उनके शरीर पर अति दुःखदायक खरज (खुजली) उत्पन्न होती है जो छुर आदि से कुरेदने पर भी शांत नहीं होती । यहाँ के बुखार से अनंतगुना ज्यादा बुखार वहाँ होता है । उनको दाह, शोक, भय, पराधिनता इत्यादि कई गुना यहाँ से ज्यादा होता है। शत्रु तथा उनके शस्त्रादि देखकर भय पेदा होता है। उनका विशेष ज्ञान भी कष्टदायी है। से दुक्खाए-मोहाए- माराए- परगाए - णरगतिरिक्खाए । भोग आशक्ति से जीव दुःख, मोह, मरण, नरक और तिर्यंच को प्राप्त करता है। सद्यः संमूर्छितानंत जंतुसंतानदूषितम् । नरकाध्वनि पाथैयं कोऽश्रीयात् पिशिंत सुधीः || प्राणीओं का घात करने के बाद तत्काल उसमें अनंत जीवों की परंपरा का सर्जन हो जाता है । उसका मांस भक्षण मनुष्य को नरक गतिमें ले जाता है। अनुत्तर नरक में महावेदनाओ झेल कर वापस प्रमादमें रहेने से भी वे दुःख अनंत बार प्राप्त कर लिये । पन्नरसहिं परमाहम्मिएहिं । पंदह परमाधामी से (प्रतिक्रमण करता हूँ।) अधर्मो नरकादीनां हेतुर्निन्दितकर्मजः । नरकादि का हेतु अधर्म है । निंदीत कार्य से अधर्म उत्पन्न होता है । १) हिंसा आदि पाप की भयंकर सजा : पापकर्म है तो उसे भोगने के लिये अधो लोक का ७ रज्जु प्रमाण विशाल नरक क्षेत्र भी है। जहाँ पापी जीव भयंकर सजा भुगत रहे होते है। ऐसे पाप की प्रवृत्ति और उसकी कडक शिक्षा सहन करना भी एक शाश्वत क्रम है। हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!!
SR No.009502
Book TitleMuze Narak Nahi Jana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprabhvijay
PublisherVimalprabhvijayji
Publication Year
Total Pages81
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size2 MB
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