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________________ पापो की सजा का रौद्र-डरावना स्वरुप देखने-जानने के बाद ऐसे दुःखी कोई भी जीव न हो । कब ? जब सर्वथा सर्व पाप न करने की प्रतिज्ञा लेंगे तब, क्योंकि अगर पाप किया तो उसके उदय होते ही उसकी सजा जीवों को भुगदनी पड़ती है। यह शाश्वत नियम है। पाप से अनजाना कोई भी व्यक्ति नहीं होता । व्यक्ति खुद जीवनमें पाप करता है, इसलिये वह पापों को प्रत्यक्षरुप से पहचानता है । हिंसा, जठ, चोरी, दराचार, व्यभिचार क्रोध, अभिमान, माया, कपट, छल-प्रपंच, अतिलोभ, चाडी-चुगली क्लेश-कषाय, कलह कंकास, आक्षेप-आरोप, अभ्याख्यान, संग्रहपरिग्रह, इर्ष्या-द्वेष, परनिंदा, मिथ्यात्व आदि कई प्रकारके पाप है। इन सब पापों का आचरण मानवी प्रतिदिन करते रहते है। अरे ! बहुतसे लोग खुद पाप नहीं करते पर दुसरों से करवाते है। कभी कभी ऐसे पाप और पापीओं की प्रशंसाअनमोदना भी की जाती है। इस तरह से इतने सब पाप जो मानव दैनिक जीवन में कर रहा हो वह पाप से अनभिज्ञ नहीं हो सकता। __ इन पापों को तो जिंदगी में हजारों बार कर चुके हैं। इसलिये एक एक पाप से अच्छी तरह परिचित हम हैं। कौनसा पाप किस तरह जाय उसके हर पहलु से हम बाकिफ है। कब यहाँ किस प्रकार से झूठ बोलना, बड़े की हाजरी में कैसे सिफत पूर्वक चोरी की जाय एसी कला में मुझे अच्छी तरह आती है। क्योंकी-हिंसा. झठ चोरी इत्यादी पाप मैने कई बार किये है। अनंत भवोकी वात ही कहां ? इस वर्तमान भव का विचार कर कि अपने जन्म से आज तक कितनी बार बोले ? किन बाबतौं में बोले ? किन किन विषयो पर गलत बोले ? अथवा एक विषय में, एक ही बाबतमें जिवन के इतने वर्षोक आयुष्य में कितनी बार बोले होंगे ? तथा कितनो के समक्ष जूठ बोले होंगे ? इसकी क्या कोई गीनती है ? किसी ने भी अपने किये हुए पापो का हिसाब रखा है। कौन रखता है ? पाप करते है, करबाते है, तथा करते जाते है। इसलिये हर एक पाप से हर व्यक्ति अच्छी तरह जानता है अनजान नहीं है। यह तो जूठ नाम के एक पाप की बात की इस तरह चोरी, इसी तरह जीव हिंसा, क्रोध गुस्सा करना, मान अभिमान करना, माया कपट करना, अतिलोभ करता, राग द्वेष करना, इर्ष्या प्रत्यारोप करना चुगलखोरी करना, अतिसंग्रह करना औरो की निंदा करना पसंद नापसंद के बारे में अच्छा बुरा कहकर खुशी अथवा दुःख जाहीर करना, माया व कपट पूर्वक छल प्रपंच से सच्चे झूठ खेल खेलना, मिथ्या वृति से देव-धर्म तथा तत्त्वों को न मानना आदि अठारह पापों को आज तक हर जिवो ने कितनी बार, किस तरह कहां कहां किस किस के साथ किन बातो पर, किन विषयो पर पापो को पोषा है। ऐसे एक एक पाप कितनी ही बार किये है इसका हिसाब कहाँ है। अपने आप द्वारा किये गये पापोकी संख्या देखकर चकर आ जाते है। यह तो सिर्फ वर्तमान ने एक भव की बात है, उससे भी अवसपीणी काल के पांचवे आरे के कम आयु वाले छोटे भव की बात है तो फिर कल्पना करो के ? दुसरे, तीसरे व चौथे आरे के लाखो, करोडो अरबो वर्ष के आयुष्य काल वाले बडे भवो में एक एक पाप कितनी बार किये होगें ? इसका हिसाब कैसे करोगे? इस तरह अनेक भवो के सब पाप इकट्टा करे तो कैवल्य ज्ञानी भगवान भी उसकी संख्या अनंत है कैसे बतायेंगे। इस तरह अनंत जन्मों से भवो से जीवो को पाप करने की आदत है। व्यसन है। अनंत भव बिते, काल अनंत गुणा बिता, इसमे अनंतगुणा पाप किये हुऐ, इस तरह यह स्पष्ट है कि जीव पापो से रंगा हुआ है। पाप करने की आदत, व्यसन तथा संस्कार, पाप करने की इस वृत्ती के कारण पूर्व संस्कारो के कारण आगामी काल तथा भवों में भी पाप होते रहते है। पापकी इस वृत्तिसे बंधे कर्म अपने, उदयकाल मे वापस पाप वृत्ति कराते है। तथा वापस पाप कर्म बंधते है तथा फिर से कर्मो का उदय होता है। इस तरह पाप का कभी अंत नही आता । फल स्वरुप जीव को चारगति में (८४) ८४ के चक्र छुटकारा नहीं मिलता। __आप पाप में मानते हो और सजा में मानो के न मानो उससे क्या फरक पडेगा ? सजा चाहिये या नहीं वह तो मिलेगी ही और भुगतनी ही पडेगी । जिस तरह जहर को भले ही न मानो पर पीने के बाद, पेट में गया फिर जो असर होती है वह होकर ही रहेगी। उसमें कोई विकल्प नहीं है। महावीर प्रभु के जीव ने १९ वे भव में ७वी नरक में ३३ सागरोपम जितने दीर्घ समय पर्यंत कडक सजा सहन की है प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (20)
SR No.009502
Book TitleMuze Narak Nahi Jana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprabhvijay
PublisherVimalprabhvijayji
Publication Year
Total Pages81
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size2 MB
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