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________________ असत्य एवं संदेहात्मक होता है किन्तु इसी आधार पर इसे यथार्थ ज्ञान का साधन नहीं मानना उचित नहीं कहा जा सकता है। ऐसे तो प्रत्यक्ष ज्ञान भी कभी-कभी दूषित एवं असत्य हो जाता है। पृथ्वी देखने में चिपटी लगती है, किन्तु वास्तव में यह नारंगी के समान गोल है। अत: जिस आधार पर चार्वाक ने अनुमान आदि प्रमाण को यथार्थ ज्ञान के स्वतंत्र प्रमाण के रूप में अस्वीकार किया है उसी आधार को अगर स्वीकार कर लिया जाय तो प्रत्यक्ष प्रमाण भी अस्वीकृत हो जायेगा। अगर प्रत्यक्ष ज्ञान निश्चित एवं दोषपूर्ण होने पर भी ज्ञान का साधन कहा जाता है तो फिर शब्द को भी इसी आधार पर ज्ञान का साधन मानने में क्या हर्ज है? (च) चार्वाक ने वैदिक शब्दों के विरुद्ध जेहाद बोलते हुए इनके रचयिताओं को भद्दी गालियाँ तक दी हैं। इन्होंने उन्हें धूर्त, पाखंडी, ढोंगी, निशाचर, स्वार्थी आदि कई बुरी संज्ञाओं से विभूषित किया है। वस्तुतः वैदिक ऋषि-मुनि अथवा महर्षि पाखंड, ढोंग, स्वार्थ इत्यादि से परे थे। उनका सम्पूर्ण जीवन लोगों की सेवा, कल्याण अथवा निःस्वार्थ सेवा की भावना का ज्वलन्त उदाहरण है। उन्हें बुरा-भला कहना किसी भी विचारक के लिए शोभा नहीं देता है। समीक्षा-उपर्यक्त आलोचनाओं के बावजद यह मानने के लिए बाध्य होना पड़ता है कि चार्वाक के प्रमाण-विज्ञान की देन को भुलाया नहीं जा सकता है। चार्वाक के नाम से उनके विपक्षियों ने अनुमान के खण्डन के लिए जो युक्तियाँ दी है, वे कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। इस प्रकार की युक्तियाँ आधुनिक पाश्चात्य तर्कशास्त्र में भी पाई जाती हैं। चार्वाक का यह कहना कि अनुमान से निश्चित ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती है। इस बात को पाश्चात्य देशो में प्रैग्मेटिस्ट तथा लॉजिकल पॉजीटिविस्ट आदि अनेक सम्प्रदायों के विद्वानों व विचारकों ने स्वीकार कर लिया है। अष्टावक्र ने भी कहा है-मूढ़ व्यक्ति योग, अभ्यास और साधनाओं से ब्रह्म होने की कामना करता है, किन्तु साधनाओं से ब्रह्म की प्राप्ति नहीं होगी। किन्तु चार्वाक के विपरीत इनका कहना है कि ब्रह्म तो वह स्वयं ही है। ब्रह्म से वह है, उसी से ब्रह्म है। राधाकृष्णन् के शब्दों में अनुमान का यौगिक अर्थ है किसी वस्तु के पश्चात् मापना। यह वह ज्ञान है, जो अन्य ज्ञान के पश्चात् आता है। चिह्न (लिंग) के ज्ञान से हम उस पदार्थ का ज्ञान प्राप्त करते हैं जिसमें वह चिह्न विद्यमान हो। अनुमान शब्द का प्रयोग बहुत व्यापक अर्थों में होता है, जिनमें निगमन और आगमन दोनों प्रकार की प्रक्रिया आ जाती है। अनुमान की परिभाषा कभी-कभी इस प्रकार की जाती है। ऐसा ज्ञान जिससे पूर्व प्रत्यक्ष ज्ञान आवश्यक है। वात्स्यायन की सम्मति में, "प्रत्यक्ष ज्ञान के अभाव में अनुमान हो ही नहीं सकता। 13 अलौकिक प्रत्यक्ष और अलौकिक प्रत्यक्ष के अन्तर्गत योगज एवं अपरोक्षानुभूति के अभाव में चार्वाक तत्त्वमीमांसा के क्षेत्र में भौतिकवादी और
SR No.009501
Book TitleGyan Mimansa Ki Samikshatma Vivechna
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages173
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size1 MB
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