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________________ उत्तम त्याग | [ ६७ जिनको द्रव्य उत्पन्न करके उसका दान करनेका अभ्यास होता है, कष्ट होता है और न 1 उन्हें तो द्रव्यके वियोग होनेपर भी न कुछ उसके संयोगमें हर्ष होता है । क्योंकि वे तो उसके चंचल स्वभाव से परिचित हैं, इसी से उसे दृढ़ता से नहीं पकड़ते और देते रहते हैं । 'परन्तु जिन्हें दान करनेका अभ्यास नहीं है, वे तो हाय २ करके मरकर पशु व नरकगतिमें घोर दुःख भोगते हैं । जो लोग द्रव्य एकत्र ही करते हैं और खर्च नहीं करते हैं, ऐसे कंजूसके संसार में अनेक लोग निष्कारण ही शत्रु बन जाते हैं और धनी कंजूस सदा चिंतावान् तथा भगवान् बना रहता है। जहां उनके पास कोई मिलनेको' भी आया कि उन्हें यही शंका रहती है कि कहीं यह कुछ मांगेगा तो नहीं ? एक समय एक सेटके यहां कोई उपदेशक गया, तो मिलते ही सेठजीने जुहारुके बदले यही कहा " थे, कांई कुछ मांगेगा तो नई ? अठे लेवा देवारी बात करो मती " तात्पर्य यह कि कंजूस सदा शंकित रहता है । कभी वह अतिलोभमें पड़कर धूनके हाथ उलटा पासका सब धन खो बैठता है । तथा ऐसे २ और भी बहुतसे अनर्थ करता है। निदान जब अन्त समय आता है तो और तो क्या, अपना चिर'पोषित शरीर तक भी साथ नहीं जाता और सब ठाट यहीं पड़ा रह जाता है। केवल उतना ही साथ जाता है जो उत्तम भावपूर्वक भक्ति व दयादान में दिया हो । सो यदि कुछ उन्होंने दिया होता तो. अवश्य वह उसको आगामी किसी समय मिल जाता। इसलिये जिन्हें 'अपने साथ ले जाना है उन्हें चाहिये कि अपने सामने क्या, अपने
SR No.009498
Book TitleDash Lakshan Dharm athwa Dash Dharm Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size6 MB
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