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________________ ६८ ] 2009 श्रीदशलक्षण धर्म । ही हाथसे अपना द्रव्य सुपात्र दानमें लगाकर अपने साथ ले जांय । कहा है "घर गये सो खोगये; अरु देगये सो ले गये ।" “यिता रत्नाकरो यस्य, लक्ष्मी यस्य सहोदरी । शंखो भिक्षाटनं कुर्यात्, नादत्तमुप्रतिष्ठते ॥" अर्थात् - समुद्र ( जिसमें रत्न उत्पन्न होते हैं ) जिसका पिता है और लक्ष्मी बहिन है, वही शंख घर घर भीख मांगता फिरता है। यह दान न देने का ही फल है । प्रत्यक्षमें देखा जाता है कि एक पिताके ४ पुत्रोंमें ३ धनी और १ निर्धन होजाता है, यह सब दानका माहात्म्य है | इसलिये सदा दान करनेका अभ्यास रखना चाहिये । जिनको ममत्व कम होता है, वे ही दान करते हैं और जब सर्वथा ममत्व छूट जाता है, तब उसे सर्वथा छोड़कर उत्तम पुरुष स्वात्मसिद्धि में लग जाते हैं । 1 बहुत से लोग अपने जैसे श्रीमानोंको खिलाने या जीमनवार करनेको ही दान समझते हैं, पर यह उनकी भूल है, क्योंकि श्रीमानोंको देना निरर्थक हैं । कहा भी है- " वृथा वृष्टिः समुद्रेषु वृथा तृप्तेषु भोजनम् । वृथा दानं धनाढ्येषु वृथा दीपो दिवापि च ॥ " अर्थात् - समुद्र में वृष्टि होना, खाये हुएको खिलाना, धनीको दान देना और सूर्यको दीपक बताना व्यर्थ है । बहु लोग अपनी बहिन, बेटी, बेटा, स्त्री आदिको कुछ द्रव्यका विभाग करके अपनेको दानी मान लेते हैं, परन्तु यह भी दान नहीं है, क्योंकि वे लोग
SR No.009498
Book TitleDash Lakshan Dharm athwa Dash Dharm Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size6 MB
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