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________________ མཱནད ས་དཔར ད ་ག ན་ ་་་ 、 ༥ ་་་ ་ ་་ ་་ ་ན་ ་ག དཔ་、 ད་ ས་ལ་ श्रीदशलक्षण धर्म। तो तीन लोककी संपत्तिको तृणवत् देखता है। इन सब पदार्थोंको कर्मकृत उपाधि मानता है, तब इनसे विरक्त हो इन्हें जहांकी तहां छोड़कर स्वरूपमें लीन होजाता है । और यदि कोई प्रबल चारित्रमोहकर्म इन्हें सर्वथा छोड़नेमें बाधक होता है तो जलकमलवत् विरक्त भावोंसे लक्ष्मीका भोगोपभोग करता हुआ उससे भिन्न रहता है तथा यथासंभव समय २ उसे त्याग भी करता जाता है और सुअवसर पाकर इनको सर्वथा त्याग देता है। थोड़ा २ त्याग करनेका प्रयोजन केवल विना संक्लेश भाव हुए ममत्व भाव घटाना तथा त्यागशक्तिका बढ़ाना है । जो निरंतर थोड़ा बहुत दान किया करते हैं, वे किसी समय सर्वथा त्याग करनेमें भी समर्थ होते हैं, परन्तु जिन्हें खर्च करनेका ( दान करनेका ) अभ्यास नहीं होता है, वे अवसर आनेपर भी छोड़ नहीं सकते और इस सम्पत्तिके इतने मोहमें पड़ जाते हैं कि मरते मरते भी उन्हें अपनी द्रव्यरक्षाकी चिन्ता बनी रहती है जिससे कितने तो मरकर अपने पूर्वजन्मके द्रव्य-कोष (भण्डार) में सर्प होते हैं । और यह तो निश्चित सिद्धान्त है कि जिस पर वस्तुका संयोग होता है उसका नियमसे वियोग होता है।सो द्रव्य या तो अपने संचय करनेवालेको उसका पुण्य क्षीण होते ही उसी जन्ममें उसके ही सामने ही छोड़कर चला जाता अर्थात् पृथक् होजाता है। जैसे बहुतसे बड़े २ रईस, व्यापारी, जौहरी आदि देखते २ धनहीन हो, पर-आश्रित भोजन पानेको भी तरसते देखे जाते हैं । अर्थात् राजासे गरीब-निर्धन' (रङ्क) हो जाते हैं या संचयकर्ता स्वयं अपने द्रव्यंको छोड़कर चले जाते अर्थात् मर जाते हैं। ऐसी अवस्था में
SR No.009498
Book TitleDash Lakshan Dharm athwa Dash Dharm Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size6 MB
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