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________________ ooooooooooooooooooooooooo मोह की महिमा है ।।१९।। (११) ज्ञानीजन जिनेन्द्रभाषित वीतराग भाव रूप श्रेष्ठ जिनधर्म को ही सुख का कारण मानते हैं अतः उनके लिए वही विश्राम का स्थान है, स्त्री नहीं ।।२०।। (१२) जिनधर्म बाह्य-अभ्यंतर परिग्रह से रहित निग्रंथ गुरु से और उनके संयोग के अभाव में उनके उपदेश को कहने वाले श्रद्धानी श्रावक से सुनना चाहिए।।२३।। (१३) वह ही तो कथा है, वह ही उपदेश है और वह ही ज्ञान है जिससे जीव लोकरीति और धर्म का स्वरूप जाने ।।२४ ।। (१४) सांवत्सरिक एवं चातुर्मासिक अर्थात् दशलक्षण एवं अष्टान्हिका आदि धर्म पर्यों के रचने वाले पुरुष जयवंत हों क्योंकि उन पर्यों के प्रभाव से पापी पुरुष भी धर्मबुद्धि वाले हो जाते हैं।।२६ ।। (१५) धर्म के पर्यों में भी अत्यंत पापी जीव पाप में ही तत्पर होते हैं ।।२९ ।। (१६) पात्रदानादि धर्म के कार्यों में ही जो धन लगता है वह सफल है।।३०।। (१७) देने वाले तो अपना मान पुष्ट करने के लिए दान देते हैं और लेने वाले लोभी होकर लेते हैं, जिनधर्म का रहस्य वे दान देने और लेने वाले दोनों ही नहीं जानते इसलिए वे दोनों ही संसार समुद्र में डूब जाते हैं और अन्य मत में तो ऐसे भाटवत् दूसरे की स्तुति गाकर दान लेने वाले पहले भी थे परन्तु जिनमत में इस निकृष्ट काल में ही हुए हैं ।।३१।। (१८) धर्म का स्वरूप गुरुओं के उपदेश से जाना जाता है और इस काल में गुरु अपनी महिमा के रसिक हैं सो वे शुद्ध मार्ग को छिपाते हैं अतः जिनधर्म की विरलता इस काल में हुई है।।३२।। (१९) यथार्थ जिनधर्मियों के आगे मिथ्यादृष्टियों का मत चलने नहीं पाता इसलिए जिनधर्मी उनको अनिष्ट भासते ही हैं । ।३४।। (२०) इस निकृष्ट काल में उत्तरोत्तर जिनधर्म की और-और विरलता एवं हीनता ही होती जा रही है।।४२।। (२१) जिन्हें जिनधर्म की प्राप्ति दुर्लभ है ऐसे भाग्यहीन जीवों की उत्पत्ति के | कारण ही इस निकृष्ट काल में षटकाय के जीवों की रक्षा करने में माता के समान जिनधर्म का अत्यन्त उदय नहीं दिख रहा है, जिनधर्म किसी प्रकार से भी हीन नहीं है।।४३ ।। (२२) जो जीव धर्म के किसी भी अंग के सेवन में अपनी ख्याति, लाभ और OOOOOOOOOOOOOOOO
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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