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________________ जिनधर्म (१) अरहंत भगवान के मत की श्रद्धा करने वाला अर्थात् जो भगवान ने कहा है वह ही सत्यार्थ है ऐसा मानने वाला पुरुष मोक्षमार्गी है और जिनमत की श्रद्धा के बिना घोर तपश्चरणादि करने पर भी विशेष फल नहीं मिलता ।। गाथा २ ।। (२) जिनभाषित धर्म अकेला ही संसार के समस्त दुःखों को हरता है और सकल सुख का कारण है ।।३।। (३) जिनमत के श्रद्धान से मोक्ष प्राप्त होता है और वहाँ यह जीव सदा अविनाशी सुख भोगता है । । ४ ।। (४) लोकप्रवाह तथा कुलक्रम में धर्म नहीं होता, धर्म तो जिनभाषित वीतराग भाव रूप ही है। कुलक्रम में धर्म हो तो म्लेच्छ कुल में चली आई हुई हिंसा से भी धर्म होगा। इसी प्रकार यदि अपने कुल में सच्चा जिनधर्म भी चला आ रहा हो और उसको कुलक्रम जानकर सेवन करे तो भी विशेष फल का दाता नहीं है इसलिए जिनवाणी के अनुसार निर्णय करके ही धर्म धारण करना योग्य है ।।६।। (५) लोक में भी राजनीति है कि न्याय कभी भी कुलक्रम से नहीं होता तो फिर क्या तीन लोक के प्रभु अरहंत के जिनधर्म के अधिकार में कुलक्रम के अनुसार न्याय होगा अर्थात् कभी भी नहीं होगा । ७ ।। (६) उस जीव को जिनभाषित धर्म दुर्लभ हो जाता है जो जिनमार्ग का उल्लंघन करके प्रवर्तता है ।।११।। (७) खोटे आग्रह रूप पिशाच से ग्रहीत जीवों को धर्म का जो उपदेश देता है वह मूर्ख है । १३ ।। (८) जीव का हितकारी एक जिनधर्म है । 'जिनधर्म से मोक्ष होता है' इसमें किसी भी प्रकार का संदेह नहीं है इसलिए जो धर्म के उत्कृष्ट रस के रसिक हैं उनको जिनधर्म का स्वरूप अति कष्ट से भी जानना योग्य है ।। १५ ।। (९) अन्य लौकिक बातों को तो सभी जानते हैं और चौराहे पर पड़ा हुआ रत्न भी मिल जाता है परन्तु जिनभाषित धर्म रूपी रत्न का सम्यक् ज्ञान दुर्लभ है इसलिए जिस - तिस प्रकार जिनधर्म का स्वरूप जानना योग्य है | | १६ || (१०) समस्त जीव सुखी होना चाहते हैं परन्तु सुख के कारण जिनधर्म का सेवन नहीं करते और पापबंध के कारण पुत्रादि के स्नेह को ही करते हैं - यह क 42
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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