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________________ oooooooooooooooo0000 0.0 go do oo ooo oo 0000000 पूजा का आशय रखता है उसे धर्म में भी माया अर्थात् छल है।।४४ ।। (२३) यदि तुझे धर्म की वांछा है तो प्रथम यथार्थ देव-गुरु-धर्म की अथवा जीवादि की श्रद्धा निश्चय करनी योग्य है।।४६ ।। (२४) अधर्मियों की संगति छोड़कर धर्मात्माओं की संगति करनी चाहिये क्योंकि यही सम्यक्त्व का मूल कारण है।।४७।। (२५) धर्मात्मा को जिनधर्मियों की ही संगति में रहना उचित है, मिथ्यादृष्टियों की में नही-यह उपदेश है।।४८।। (२६) उस स्थान पर धर्म नहीं बढ़ता और धर्मात्मा जीव पराभव ही पाता है जहाँ जैन सिद्धान्त का ज्ञाता गृहस्थ तो असमर्थ हो और अज्ञानी सामर्थ्य सहित हो ।।४९ ।। (२७) जो धनादि सम्पदा से युक्त होने पर भी धर्म में अत्यन्त अनुराग नहीं करता वह कुमार्गी जीव प्राप्त धन को निष्फल गँवाता है और शुद्ध धर्म के इच्छुक जीवों को पीड़ा देता है।।५० ।।। (२८) जिसके आश्रय से जिनधर्मी निर्मल धर्म का सेवन करते हैं वह पुरुषों में रत्न समान उत्तम पुरुष जयवन्त हो। कैसा है वह ? सम्यग्दर्शनादि गुणों का धारी है और सुमेरु गिरि समान बड़ा उसका मूल्य है ||५२।। (२९) शास्त्राभ्यास आदि भला आचरण करने वाले जीवों को जो सदाकाल धर्म का आधार देता है उस पुरुष के मूल्य को चिंतामणि और कल्पवृक्ष भी नहीं पाते ।।५३।। (३०) जिनधर्मी की सहायता करने वाले पुरुष का नाम लेने से मोह लज्जायमान होकर मंद पड़ जाता है और उसका गुणगान करने से हमारे कर्म गल जाते हैं । ।५४।। (३१) धर्म का सेवन निरपेक्ष होकर ही करना चाहिए, कीर्ति के इच्छुक और कषायसंयुक्त होकर नहीं। अपनी प्रशंसा आदि के लिये जो धर्म का सेवन करते हैं उनका न तो यशकीर्तन होता है और न उनके धर्म ही होता है ||५५ ।। (३२) सच्चे देव व शास्त्र का निमित्त मिलने पर भी उनके स्वरूप का निर्णय नहीं कर सकने के कारण जीव ने यथार्थ जिनधर्म को नहीं पाया सो यह उसके तीव्र पाप का ही उदय है।।६०।। (३३) हे भाई ! जो बड़े कुल मे उपजे पुरुष हैं उन्हें औरों का भी उपहास करना अयुक्त है फिर तुम्हारी यह कौन सी रीति है कि शुद्ध धर्म में भी हास करते हो अर्थात् हास्य करना तो सर्वत्र ही पाप है परन्तु जो जीव धर्म में हास्य करते OOOOOOOOOOOOOOO 44
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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