SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) ८७ में नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती' में (आता है।) उल्लास... अपना उल्लास... ओ...हो...! प्रभु! आपके प्रताप से हम भवसागर तिर गये हैं, अब हमारे भव नहीं होंगे। आहा...हा...! मुमुक्षुः उत्तर : यह तो निमित्त से ऐसे ही कथन आते हैं। भाषा, ऐसी व्यभिचारी भाषा है। यह गोम्मटसार में ऐसा आता है, अन्त में यह शब्द है । है या नहीं? लाओ न, भाई! पाठ तो लाओ. समय पर आवे तो शोभे नहीं तो क्या शोभे? क्यों? एई. । निहालभाई। लोग ऐसा कहते हैं कि समय पर आवे तो मण्डप शोभेगा – ऐसा कहते हैं न? विवाह में मण्डप करते हैं न? बहिन-लड़कियाँ लिखती हैं समय पर आना, भानेज को सबको लेकर (आना), मण्डप की शोभा बढ़ेगी। यह सब संसार की बातें ऐसी हैं। मण्डप, मण्डप डालते हैं न? मण्डप, निमन्त्रण पत्रिका में ऐसा लिखते हैं। मण्डप कहते हैं ? यहाँ काठियावाड़ में माण्डवो' कहते हैं । (गोम्मटसार में) ४३६ गाथा है। लो, जो चाहिए वह पृष्ठ आया, अण्डरलाईन किया है। देखो,.... वीरेन्द्र नन्दी नामक आचार्य का शिष्य ऐसा मैं, नेमिचन्दसिद्धान्त चक्रवर्ती, गोम्मटसार का कर्ता । वीर नन्दी' नामक आचार्य का मैं शिष्य ग्रन्थकर्ता नेमिचन्द्र हूँ। शास्त्र शिक्षादायक गुरु चरणों के प्रसाद से, शास्त्र शिक्षादायक गुरु चरणों के प्रसाद से अनन्त संसार समुद्र के पार को प्राप्त हुआ। उन श्रुतगुरु अभयनन्दी आचार्य को नमस्कार करता हूँ। देखो, उन्हें निश्चय भी हो गया है कि अल्प काल में मेरा संसार नष्ट होगा। संसार है नहीं – यह पञ्चम काल के मुनि कहते हैं। ४३६ गाथा है। समझे? अनंत संसार जलही उतीनो अनन्त संसार के समुद्र को पार पा गया हूँ। स्वयं की साक्षी है न? तत्पश्चात् कहते हैं, हे प्रभु! आपके चरण-कमल की सेवा से मैं यह प्राप्त हुआ हूँ - ऐसी विनय की भाषा है। उसमें भगवान के पैर सेये थे? पैर दबाये थे? उन्होंने कहा वैसा भाव अपने में प्रगट कर, मैं संसार से पार हुआ हूँ। प्रभु! आपकी मुझ पर कृपा है। भाषा तो ऐसा बोले न! विनयवन्त प्राणी कैसे बोलेगा? समझ में आया ओ...हो... ! फिर दश करण का व्याख्या ली है । दश करण आते हैं न? स्वयं का आह्लाद प्रसिद्ध करते हैं। समझ में आया? 'कुन्दुन्दाचार्यदेव' ने भी कहा है। अहो...! सर्वज्ञ भगवान से लेकर हमारे गुरु
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy