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________________ ८८ गाथा-७८ पर्यन्त महा आत्मा में लीन, विज्ञानघन में लीन थे। विज्ञानघन में लीन ऐसे हमारे भगवान और फिर हमारे गुरु ने हमें कृपा करके उपदेश दिया। शुद्ध आत्मा का उपदेश दिया। लो! संक्षिप्त शब्द-शुद्धात्मा का उपदेश ! भगवान ! तू शुद्धात्मा है, परमानन्द है, बस! उसमें विचार करके स्थिर हो, समझ में आया? जिन्होंने अपने पुरुषार्थ से प्रगट किया, उसे गुरु की कृपा हुई – ऐसा कहा जाता है। कहो समझ में आया? (यहाँ पर) कहते हैं कि तीन गुण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र सहित आत्मा में जो निवास करता है... देखो जो आत्मा में निवास करता है (-ऐसा कहा है) पुण्य-पाप के जो व्यवहार-विकल्प हैं, उनका निवास छोड़कर, आहा...हा...! भगवान आत्मा ही मुक्तस्वरूप है। मुक्तस्वरूप ही है। राग से-बन्धन से रहित अबन्धस्वभावी भगवान आत्मा है, उसमें सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की पर्याय, उसके आश्रय से प्रगट करके आत्मा में बसना, आत्मा में बसना। सम्यग्दर्शन-ज्ञान से आत्मा में बसना, आहा...हा... ! समझ में आया? भगवान आत्मा परमानन्द की मूर्ति परमात्मा अपना निज स्वरूप के अन्तर में स्वसन्मुख की श्रद्धा, स्वसन्मुख का ज्ञान, स्वसन्मुख में लीनता इन तीनों से आत्मा में बसकर मुक्ति का पात्र हो जा। आहा...हा...! _ 'अप्पाणि जो वसेइ' शाश्वत् सुख का भाजन होता है। जिणवरु एम भणेइ है न? जिनवर वीतराग परमेश्वर, त्रिलोकनाथ तीर्थङ्करदेव समवसरण की सभा में भगवान ऐसा कहते थे, परमात्मा ऐसा फरमाते थे। बाकी तो वाणी आती थी। बोले कहाँ ? सम्यग्दृष्टि जीव को यह निश्चय होता है कि आठों ही कर्म का बन्ध आत्मा के स्वभाव से भिन्न है। आठों ही कर्मों का बन्ध मुझसे भिन्न है। दृष्टि में आत्मा कर्म से भिन्न ही है। उसकी शङ्का, उसे स्वयं को ही रहती है, उस शङ्का को तोड़नेवाला तो वह है। मैं आठ कर्म से रहित भगवान आत्मा हूँ। आठ कर्म सहित तो व्यवहार का लक्ष्य है, उतना । स्वभाव के लक्ष्य में आठ कर्म से रहित हूँ, वर्तमान, हाँ! वर्तमान । आहा...हा...! कितनी दृष्टि के जोर से यह स्वीकृति आती है ! वह जोर किसमें पड़ा है ? आत्मा में इतना जोर पड़ा है। पूर्ण बल पड़ा है, आत्मा में पूर्ण बल पड़ा है। पूर्ण... पूर्ण... पूर्ण... ऐसे पूर्ण बल का स्वामी आत्मा, उसकी प्रतीति, ज्ञान में ऐसा आना कि मैं आठ कर्म से रहित हूँ।
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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