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________________ वीर संवत २४९२, आषाढ़ कृष्ण ६, गाथा ७७ से ८० शुक्रवार, दिनाङ्क ०८-०७-१९६६ प्रवचन नं. २९ योगसार की ७७ गाथा ! क्या कहते हैं ? देखो ! छंडिवि बे गुण सहिउ जो अप्पाणि वसेइ । जणु सामि एमइँ भाइ लहु णिव्वाणु लहेइ ॥ ७७॥ जो कोई आत्मा अपने में से राग-द्वेष ( छोड़ता है)। पहले तो अनन्तानुबन्धी के राग-द्वेष छोड़कर अपने आत्मा का सम्यग्दर्शन, ज्ञान, गुण ग्रहण करके अपने में एकाग्र होता है, 'अप्पाणि वसेइ' वह अल्प काल में मुक्ति को प्राप्त करता है I मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी के राग-द्वेष के मिटाने के लिये सम्यग्दर्शन का लाभ जरूरी है। दूसरा पैराग्राफ । कहो, समझ में आया ? आचार्य महाराज, दिगम्बर आचार्य योगीन्दुदेव ऐसा कहते हैं, दो दोष को छोड़कर दो गुण ग्रहण करना । दो दोष राग और द्वेष को छोड़कर, दो गुण - अपनी आत्मा के दर्शन और ज्ञान, उन्हें ग्रहण करना । मुमुक्षु : राग-द्वेष तो दशवें ( गुणस्थान में) छूटते हैं ? - उत्तर : राग-द्वेष कहाँ दशवें में छूटते हैं। यहाँ तो चौथे गुणस्थान से राग-द्वेष को उपयोग की भूमिका में लाते ही नहीं। समझ में आया ? सम्यग्दृष्टि अपने आत्मा के ज्ञान उपयोग में राग-द्वेष के परिणाम को एकत्वरूप से नहीं लाते, तब उसे सम्यग्दर्शन - ज्ञान कहा जाता है । राग होता है, परन्तु राग और द्वेष को रोग जानते हैं। धर्मी जीव सम्यग्दृष्टि, राग और द्वेष को रोग जानते हैं और अपना आत्मस्वभाव, शुद्धस्वरूप की दृष्टि और ज्ञान करने को लाभदायक मानते हैं । कहो समझ में आया ? इस सम्यक्त्व के पाने का उपाय अपने आत्मा के यथार्थ स्वभाव का ज्ञान है ... सम्यग्दर्शन पहली चीज है। अनन्त काल में अपना शुद्ध परमात्मा अकेला आनन्दकन्द
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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