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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) ७९ इस मिथ्यात्वभाव के कारण जिन विषयों के सेवन से इन्द्रियसुख की कल्पना करता है, उस पदार्थ में रागभाव करता है और जिससे विषयभोग में हानि होती है तथा जो विषय नहीं रुचते, उनके प्रति द्वेष करता है। यह लिया है, मोक्षमार्गप्रकाशक में लिया है न यह ! जो इसे रुचता है, इसे मदद करनेवाला होता है, उसके प्रति राग करता है, नहीं रुचता इसे मदद करनेवाला नहीं होता, उसके प्रति द्वेष करता है। इस प्रकार राग-द्वेष के चार प्रकार हैं। फिर अनन्तानुबन्धी आदि के भेद किये हैं। पहले अनन्तानुबन्धी के तीव्र राग-द्वेष छोड़ना और स्वरूप की एकाग्रता करना। (श्रोता : प्रमाण वचन गुरुदेव।) एक बार... यह बात तो सुन! । अहो! आत्मा का ज्ञानस्वभाव कि जिसमें भव नहीं है, उसका जिसने निर्णय किया, वह क्रमबद्धपर्याय का ज्ञाता हुआ, उसे भेदज्ञान हुआ, उसने वास्तव में केवली को माना। प्रभु! ऐसा ही वस्तुस्वरूप है और ऐसा ही तेरा ज्ञानस्वभाव है। एक बार आग्रह छोड़कर, तेरी पात्रता और सज्जनता लाकर यह बात तो सुन ! (पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी, आत्मधर्म, गुजराती, अगस्त 2008)
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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