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________________ ७८ गाथा-७७ नहीं है। तू तो जानने-देखनेवाला (है और) यह एकरूप से ज्ञात होता है। समस्त वस्तुएँ ज्ञात होती है, वे एकरूप से (ज्ञात होती है)। यह ठीक-अठीक ऐसे दो भाग हैं ही नहीं। आहा...हा...! और तेरे में भी दो भाग नहीं हैं। तू एकरूप से ही सबको जान, बस! यह तेरा स्वरूप है। ऐसे जानने-देखने के भाव में राग-द्वेष को छोड़कर। समझ में आया? यह त्याग करने का क्रम है। पहले मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषाय सम्बन्धी राग-द्वेष का त्याग करना।मिथ्यादृष्टि जीव पर पदार्थ को आत्मा मानने की भूल करता है। मिथ्यादृष्टि जीव अन्दर में पर-पदार्थ में आत्मा मानने की भूल करता है। आत्मा अर्थात् मुझे लाभ होगा, उससे नुकसान होगा - ऐसा माननेवाला पर को अपना मानता है। आहा...हा...! आत्मा, भगवान आत्मा के अतिरिक्त कोई भी पदार्थ मुझे यह ठीक है, ऐसा वीर्य का उत्साह, उत्साहित वीर्य (होता है), वह अनन्तानुबन्धी का क्रोध, मान, माया, लोभ है। समझ में आया? माया और लोभ ये राग के घर के हैं और क्रोध और मान दो द्वेष के घर के हैं। कोई भी वीर्य उल्लसित (होवे कि) यह ठीक है, उसे अनन्तानुबन्धी माया, लोभ कहते हैं । यह ठीक नहीं है, उसे अनन्तानुबन्धी का क्रोध-मान (कहते हैं) उसमें पर की एकत्वबुद्धि होती है। समझ में आया? मिथ्यादृष्टि पर में अहङ्कार और ममकारभाव करता है। यह मैं और यह मेरे। इन्द्रियजनित पराधीन सुख को सच्चा सुख मानता है। अज्ञानी, इन्द्रियों में उत्पन्न हुआ सुख (उसे सच्चा मानता है)। मौसम्मी खाई-पिया, ऐसे गद्दे महंगे रेशम के, रस-पूरी खाये हों और फिर रेशम के गद्दे पर सोया हो, सिर पर पंखा चलता हो, तो ओढ़ने की जरूरत नहीं, मक्खी छूती नहीं, आहा...हा...! कितनी सुविधा ! कहते हैं कि इसमें मिथ्यादृष्टि सुखबुद्धि मानता है। आहा...हा...! ऐसी व्यवस्था... केला और पूड़ी सीधे उतर जाते हों, चबाना भी नहीं पड़े और ऊँचे दईथरा हो खाये और फिर मलमल ओढ़ कर सो जाये, नागरवेल का पान चबाता हो, सेठ सुख से सोता हो, मूढ़ है - ऐसा कहते हैं। उसमें सुखबुद्धि माने वह मिथ्यादृष्टि, परपदार्थ को अनुकूल माने बिना नहीं रहता। पराधीन सुख को सुख मानता है।
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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