SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार प्रवचन (भाग - २) २३७ पूजनीय देव, चाण्डाल पुरुष भी... ओहो....! अल्प काल में वह चारित्र धारण करेगा, चाण्डाल भी मुक्ति प्राप्त करेगा । परन्तु एक नौवें ग्रैवेयक का अहमिन्द्र सम्यग्दर्शन के बिना पूज्य नहीं है। नौवें ग्रैवेयक चला जाए इतनी क्रिया पालन करे, चमड़ी उतारकर नमक छिड़क दे (तो भी) क्रोध न करे। दूसरे देव लोक की इन्द्राणी आवे तो भी विचलित न हो। उसमें क्या हुआ ? सद्रव्य की दृष्टि हुए बिना नौवें ग्रैवेयक का देव भी पूज्य नहीं है। नौवें ग्रैवेयक, ३१ सागर, अहमिन्द्र सब समान। अहं... अहं... अहं... इन्द्र सब समान, परन्तु वे पूज्य नहीं । आहा...हा... ! भाई ! भगवान आत्मा की महिमा है । आत्मा की महिमा की जहाँ दृष्टि हुई, उसकी क्या महिमा कहना ! एक गृहस्थ सम्यग्दर्शनसहित होवे तो वह ऐसे मुनि से उत्तम है... यह तो आया न? गृहस्थोः बस! यह, मिथ्यादर्शनसहित व्यवहार चारित्र का पालन करता है। सम्यग्दर्शनसहित नरक का वास भी उत्तम है, सम्यग्दर्शनरहित स्वर्ग का वास भी भला नहीं है । आहा... हा... ! पहला सम्यग्दर्शन अर्थात् द्रव्य-मोक्ष, द्रव्य का मोक्ष, मोक्ष हो गया। समझे ? अमृतचन्द्राचार्यदेव के कलश में मुक्तएव आता है। सुन तो सही ! परन्तु भावमोक्ष की पर्याय थोड़ी बाकी है। सम्यग्दर्शन का इतना माहात्म्य इसलिए कहा गया है कि उसकी प्राप्ति होने पर अनादि काल का अन्धकार मिट जाता है और प्रकाश हो जाता है । सब आगम भेद सु उर वसै.... समस्त आगम में क्या कहा ? वह उसके ज्ञान में आ जाता है । उसे बाहर ढूँढ़ना नहीं पड़ता। समस्त आगम का रहस्य - चौदह पूर्व में बारह अंग में क्या कहना है ? कैसे है ? यह सम्यग्दर्शन में आ जाता है। जो संसार प्रिय लगता था, वह अब त्यागने योग्य भासित होता है । अन्धकार गया, प्रकाश हुआ; संसार आदरणीय था, वह अब छोड़ने योग्य हो गया। पूरा संसार, पूरा संसार जिस भाव से तीर्थंकर गोत्र बाँधे, वह भाव भी हेय है । सांसारिक इन्द्रियसुख ग्रहण करने योग्य भासित होता था, वह त्यागनेयोग्य भासित होता है । आहा... हा... ! अनादि मिथ्यात्व में इन्द्रिय के सुख में रुचि थी, वह स
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy