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________________ २३६ गाथा - ९० भगवान भाग नहीं । अरे भाई ! यह तो उसका एक समय की गति की उग्रता का स्वभाव है, समय का क्या भाग पड़े ? समय का भाग पड़ता है ? समझ में आया ? यहाँ कहते हैं, भगवान आत्मा परद्रव्यों से और परभावों से भिन्न शुद्ध द्रव्य जाने और शंकारहित विश्वास में लावे, वही निश्चयसम्यग्दर्शन है । यह कोई बाहर की चीज है ? उसका आत्मा स्वीकार करना चाहिए न ! मानो, परन्तु किस प्रकार मानना ? गधे के सींग मानो, परन्तु वह है ही नहीं किस प्रकार माने ? जो चीज है, उसका आश्र करके यथार्थ निःशंक हुआ ओ...हो...! यह भगवान आत्मा अनन्त केवलज्ञान का पेट पड़ा है, उसकी पर्याय तीन काल-तीन लोक को जानती है, उससे भी अनन्तगुना जाने ऐसी ऐसी अनन्तगुनी पर्याय एक ज्ञानगुण में पड़ी है - ऐसे स्वद्रव्य की दृष्टि हुई तो कहते हैं कि उसका नाम निश्चय सम्यग्दर्शन है, वह चौथे से होता है। अभी कहते हैं कि चौथे, पाँचवें, छठवें में व्यवहार सम्यग्दर्शन होता है, बाकी नहीं । अरे! भगवान चौथे से है, प्रभु ! तू क्या करता है ? मुमुक्षु : आठ कर्म जोर करते हैं। उत्तर : जोर-बोर उसके घर रहा। कर्म का जोर उसके घर, इसके घर में जोर घुस जाता है ? समझ में आया ? तीन लोक की सम्पत्ति सम्यग्दर्शन के लाभ के सामने कुछ हिसाब में नहीं है। तीन लोक की सम्पत्ति क्या, धूल है। समझे? एक समय में जानने योग्य है, आदर करने योग्य कहाँ ? तीन लोक की सम्पत्ति है? एक नीच चाण्डाल पुरुष यदि सम्यग्दर्शनसहित हो वह पूजनीय देव है... पण्डितजी ! रत्नकरण्ड श्रावकाचार में आया है न ? भस्म से ढँकी हुई अग्नि... भस्म से ढँकी हुई अग्नि है, अग्नि है। ज्वाजल्यमान अग्नि I आहा...हा...! चाण्डाल देव है । सम्यग्दर्शन की क्या महिमा है, इसे लोग नहीं समझते। द्रव्य की तो बात ही क्या करना ! ओ...हो... ! ऐसी सम्यग्दर्शन की पर्याय जिसमें अनन्त पड़ी है। सम्यग्दर्शन पर्याय प्रगट हुई तो अनन्त... अनन्त... अनन्त... सदा रहती है या नहीं ? सादि अनन्त; भले वह पर्याय नहीं परन्तु सादि अनन्त पर्याय है, वे सभी अन्दर श्रद्धा में पड़ी हैं। द्रव्य की तो बात क्या करना ! कहते हैं कि सम्यग्दर्शन की महिमा... वह
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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