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________________ गाथा - ९० हेय हो गया। अपना अतीन्द्रिय आनन्द सुख अपने में है ऐसी रुचि में सम्पूर्ण आत्मा का आदर हो गया, तीन लोक के इन्द्रियसुख का दृष्टि में त्याग हो गया। समझ में आया ? जिस अतीन्द्रिय स्वाधीनसुख का पता नहीं था, उसका पता लग जाता है और उसका स्वाद भी आने लगता है । सर्वगुणांश वह सम्यक्त्व । अनन्त गुण का पिण्ड वह द्रव्य और द्रव्य की रुचि से जहाँ अन्तर परिणमन हुआ तो सर्व गुणों का अंश व्यक्तिरूप से प्रगट न हो तो सर्वगुणांश, सर्व गुण के धारक द्रव्य की दृष्टि हुई कहाँ से ? समझ में आया? सम्यग्दर्शन की पर्याय प्रगट हुई, आनन्द पर्याय प्रगट हुई, स्वरूपाचरण की प्रगट हुई, स्वच्छता की प्रगट हुई, प्रभुता की प्रगट हुई, और स्वरूप के कर्ता-कर्म-करण का अंश भी प्रगट हुआ। समस्त गुणों का अंश प्रगट हुआ । २३८ - सम्यग्दृष्टि को सच्चा ज्ञान होता है कि मेरा आत्मद्रव्य परमशुद्ध ज्ञातादृष्टा परमात्मस्वरूप है, मेरी सम्पत्ति मेरे ही अविनाशी ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्यादि गुण हैं। (अज्ञानी जीव) इस धूल को सम्पत्ति मानते हैं, यह मिल और मालिक धूल और फूल, मूढ़ है। मालिक किसका ? परचीज का मालिक कहाँ से हुआ ? सहजात्मस्वरूप, सहजात्मस्वरूप चैतन्यस्वभावी... सहजात्मस्वरूप चैतन्यस्वभावी । मुमुक्षु : मिल मालिक मूढ़ होगा ? उत्तर : माने वह मूढ़ ही है और क्या है ? मूढ़ को सींग उगते हैं ? परवस्तु का स्वामी तू कहाँ से हुआ ? एक चीज के दो स्वामी ? उसकी पर्याय और द्रव्य-गुण का वह स्वामी और तू भी स्वामी, एक चीज के दो स्वामी कहाँ से आये ? मुमुक्षु : मिल मालिक बड़े कहलाते हैं ? उत्तर : धूल भी नहीं। बड़ा किसे कहना ? यहाँ तो सम्यग्दर्शन- चैतन्य का स्वामी हुआ, वह बड़ा हुआ। ए... मलूकचन्दभाई ! तुम्हारे दो करोड़ और तीन करोड़ का कुछ नहीं । मुमुक्षु : हमारे लिए गिनती है, आपके लिए नहीं । उत्तर : धूल में भी वहाँ गिनती नहीं है, सब दुःख का विस्तार है। मेरा अहंभाव अब मेरे आत्मा में है और ममकारभाव मेरे ही गुणों में है... मैं
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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