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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) अपना भगवान आत्मा... ऐसा अभ्यास.... प्रभु आत्मा... आत्मा... आत्मा...। अमृत का महासागर, उसमें जितनी एकाग्रता हो, उतना आनन्द का झरना ( झरता है) । जैसे पर्वत में से पानी झरता है, वैसे आनन्द झरता है, वह विशेष आनन्द झरे, उसके अनुभव के लिए मुनिपना लेते हैं। ओ...हो.... ! कुछ बोलने या लेने के लिए या पढ़ने के लिए या सुनने के लिए (मुनिपना लेते हैं) यह कारण है ही नहीं ऐसा कहते हैं । आहा... हा.... ! समझ में आया ? १३३ जो तद्भव मोक्षगामी होते हैं तो क्षायिक श्रेणी चढ़कर (शीघ्र ही चारघातिया कर्मों का क्षय करके केवलज्ञानी हो जाते हैं... ) समझ में आया ? (फिर) समयसार का दृष्टान्त दिया है। सन्यस्त शब्द पड़ा है न ? मोक्ष की चाह रखनेवाले महात्मा को सर्व क्रियाकाण्ड और मन-वचन-काया की क्रिया का ममत्व त्याग देना योग्य है । ममत्व त्याग देना। मन-वचन-काया की जड़ की क्रिया का ममत्व छोड़ दे। दया दान के विकल्प की ममता छोड़ दे, वह मेरे नहीं । जहाँ आत्मा के निजस्वभाव के अतिरिक्त सर्व का त्याग होता है, वहाँ पुण्य और पाप के त्याग की क्या बात ? उन दोनों का त्याग है ही... अहो ! जहाँ अन्तर में दृष्टि में भी पुण्य-पाप का त्याग हो गया, फिर चारित्र पद में पुण्य-पाप की अस्थिरता त्याग हो गया। अन्तर में जितनी वीतरागता प्रगट हो, उतना धर्म है । निर्ग्रन्थ पद वीतरागता की बहुत वृद्धि होती है । उन दोनों का त्याग है ही... देखो, धर्मात्मा मुनि सन्त को (और) सम्यग्दृष्टि को भी सम्यग्दर्शन में पुण्य-पापभाव का दृष्टि और ज्ञान की अपेक्षा से त्याग है, मुनि को अस्थिरता की अपेक्षा से त्याग है । अस्थिरता का भी त्याग हो गया है और आत्मा में लीनता हो गयी, उसका नाम संन्यास है। सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्रादि स्वभाव में रहना वह ही मोक्ष का मार्ग है । लो, अपने शुद्धस्वभाव में रहना वह मोक्षमार्ग है । जो इस मार्ग में रहता है, उसके पास कर्मरहित भाव से प्राप्त और आत्मिकरस से पूर्ण ऐसा केवलज्ञान स्वयं दौड़ता आता है। लो, ज्ञानं स्वयं धावति भगवान आत्मा अपने अतीन्द्रिय आनन्द का स्वाद लेने
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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