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________________ गाथा - ८३ का उग्र प्रयत्न करता है तो अल्प काल में केवलज्ञान दौड़ता आता है । केवलज्ञान को बुलाते हैं कि लाओ केवलज्ञान, लाओ ! अनुभव की उग्रता केवलज्ञान को बुलाती है। केवलज्ञान अल्प काल में आ जाता है । आहा... हा... ! समझ में आया ? तीनों बोल आ गये - सम्यग्दर्शन, फिर मुनिपना, फिर केवलज्ञान । समझ में आया ? १३४ ✰✰✰ रत्नत्रय धर्म ही उत्तम तीर्थ है रयणत्तय - संजुत्त जिउ उत्तिमु तित्थु पवित्तु । मोक्खहँ कारण जोइया अण्णु ण तंतु ण मंतु ॥ ८३ ॥ रत्नत्रय युत जीव ही, उत्तम तीर्थ पवित्र । हे योगी! शिव हेतु हित, तन्त्र-मन्त्र नहिं मित्र ॥ अन्वयार्थ - ( जोइया) हे योगी! ( रयणत्तय-संजुत्त जिउ उत्तिमु तित्थु ) रत्नत्रय सहित जीव उत्तम व पवित्र तीर्थ है (मोक्खहं कारण ) यही मोक्ष का उपाय है ( अण्णु तंतु ण मंतु ण) और कोई तन्त्र या मन्त्र नहीं है। ✰✰✰ ८३, रत्नत्रय धर्म ही उत्तम तीर्थ है। लो, यह उत्तम तीर्थ ! सम्मेदशिखर और शत्रुञ्जय और गिरनार, वह तो शुभभाव हो, अशुभ से बचने को वह शुभभाव आता है, तब उन्हें निमित्त से तीर्थ कहा जाता है। उत्तम तीर्थ तो अपने भगवान आत्मा का सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र है। रयणत्तय - संजुत्त जिउ उत्तिमु तित्थु पवित्तु । मोक्खहँ कारण जोइया अण्णु ण तंतु ण मंतु ॥ ८३ ॥ ओ...हो... ! योगीन्द्रदेव ! छठी शताब्दी में हुए हैं। मैंने कल देखा था, तेरह सौ वर्ष पहले हो गये हैं। योगीन्द्रदेव दिगम्बर सन्त-मुनि - वनवासी निर्ग्रन्थपद में रहनेवाले, महादिगम्बर, एक वस्त्र का धागा नहीं, पात्र का टुकड़ा नहीं। एक जल का कमण्डल और एक मोर पिच्छी, कोई पुस्तक ज्ञान का उपकरण हो तो हो, न हो तो न हो । बस ! ऐसे मुनि
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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