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________________ १३२ गाथा-८२ __ मुनि, निर्ग्रन्थदशा में रहकर दिन-रात स्वानुभव का अभ्यास करते हैं... यह अन्तर में राग का भी अभाव हो गया। मुनि हुए... मुनि किसे कहते हैं...! आहा...हा...! जो अन्दर में उग्र अतीन्द्रिय आनन्द लेने के लिए शीघ्रता करते हैं। आहा...हा...! छोटे बालक को तरबूज की मिठास होती है न? तरबूज... तरबूज... । क्या कहते हैं ? खरबूजा। ऐसा आधे मन, आधे मन का एकदम लाल, छुरी मारकर निकलते हैं न! छोटा बालक होता है, उससे कहते हैं ले यह, दे भाई को। वह देने का नहीं समझता, वह उसे सीधा खाने लगता है। समझ में आया? हमारे आते हैं न? छोटे लड़के आहार देने में आते हैं न ! उनसे कहे कि पापड़ दे, तो वह पापड़ लेकर खाने लगता है। उसकी माँ कहे कि दे, तो वह सीधा पापड़ (खाने लगता है)। ऐसे कोई कहे, यह भाई को दे, तुझे बाद में देंगे, हाँ! दे बड़े भाई को दे। 'बड़े भाई को दे' वह नहीं सुनता, एकदम लाल देखकर सीधा चूसने लगता है। आहा...हा...! इसी प्रकार भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द का (बिम्ब है)। एकदम लाल तरबूज की मिठास हो, जड़ की मिठास है, यह तो चैतन्य की मिठास है। एकाग्रता की छुरी (चलाकर), जितनी एकाग्रता करे उतना आनन्द झरता है। समझ में आया? ऐसा परमात्मा मेरे पास है । मैं ही आत्मा हूँ, परमात्मा हूँ। आहा...हा...! निर्ग्रन्थदशा में रहकर दिन-रात स्वानुभव का अभ्यास करते हैं। लो, निर्ग्रन्थ दशा में यह अभ्यास है। लेना, देना, पुस्तक बनाना, अमुक-अमुक करना, वह उनका अभ्यास नहीं है । सुन न ! इतनों को समझाया और इतनों को देश में बताया और इतने राजाओं को समझाया और इतनी पुस्तकें बनायीं... अरे... ! यह तेरा कर्त्तव्य है ? सुन तो सही ! प्रभुदासभाई! यहाँ तो भगवान आत्मा, अपने निज स्वरूप की सम्पत्ति की दृष्टि का अनुभव हुआ तो राग होने पर भी उसका स्वामीपना नहीं है, इतना त्याग है और स्वरूप में स्थिरता करने को निर्ग्रन्थ पद में आ जाए तो बाह्य में दिगम्बर (दशा और) अन्दर में तीन कषाय के अभावपूर्वक का आनन्द है। स्वानुभव के आनन्द की उग्रता का वेदन करने के लिए ही मुनि होते हैं । आहा...हा... ! दुनिया को समझाने के लिए, बोध देने के लिए, उपदेश देने के लिए मुनि नहीं होते। कहो, ज्ञानचन्दजी ! क्या कहते हैं ? देखो, स्वानुभव का दिन-रात अनुभव करने के लिए मुनि होते हैं । आहा...हा...!
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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