SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) १३१ (वह) अपने अतीन्द्रिय आनन्द का अनादर करता है। समझ में आया? धर्मी ऐसी चीज है, उसका फल भी महा अमृत फल है। अमर फल! अमर फल 'पिंगला' को नहीं था? वह तो खोटा अमर फल था। आता है न! 'पिंगला' को? किसी ने राजा को दिया, राजा ने 'पिंगला' को दिया, 'पिंगला' ने अश्वपाल को दिया, अश्वपाल ने किसी बाई को (दिया), उस बाई के पास से वापस राजा के पास आया। (राजा को लगा), अरे...! यह फल कहाँ से (आया)? अरे... ! यह फल (तेरे पास) कहाँ से (आया)? बाई कहने लगी. अन्नदाता! एक अश्वपाल है वह मेरे पास आता है. उसने मझे दिया है। अश्वपाल के पास कहाँ से आया? बुलाओ अश्वपाल को! कहाँ से (आया) यह फल ? (अश्वपाल कहता है) महाराज ! यह 'पिंगला' रानी के पास से आया है। अरे...! पिंगला! यह क्या? 'देखा नहीं कुछ सार जगत में, देखा नहीं कुछ सार, प्यारी मेरी पिंगला नारी, देखा नहीं कुछ सार...'छोड़कर चला गया। आहा...हा...! वानवे लाख मालव का अधिपति चल निकला, यह संसार! गुप्त रीति से मेरा यह फल वैश्या को किसी ने दिया होगा, तो लगा कि अन्नदाता को दो। वैश्या, अश्वपाल के साथ चलती होगी, अश्वपाल को पिंगला ने दिया, ऐसे चलते-चलते (चला)।आहा...हा... ! ऐसे सम्यग्दृष्टि को अन्तर में से पूरी बात उड़ जाती है। समझ में आया? सम्यग्दृष्टि को अन्तर में ही वैराग्य है। ज्ञान, वैराग्य शक्ति आती है न? भाई ! 'निर्जरा अधिकार' मैं नहीं आता? ज्ञान, वैराग्य चौथे गुणस्थान से है। अन्य लोग कहते हैं नहीं, वह तो सातवें में होता है। सुन न, भगवान ! अरे... ! तुझे तेरे माहात्म्य का पता नहीं है प्रभु! आहा...हा...! अतीन्द्रिय अनाकुल आनन्द, वह भी परिपूर्ण आनन्द, वह भी अनन्त... अनन्त... आनन्द पर्याय में प्रगट हो तो भी कम न हो, ऐसा आनन्द! ऐसा समुद्र अन्य कहाँ है ? ऐसा भगवान आत्मा अतीन्द्रिय... अतीन्द्रिय आनन्द के रस का समुद्र जहाँ दृष्टि में आया, (वहाँ) राग का त्याग हो गया। राग का रोग है। अरे... ! मेरा अमृत लुटता है, मेरे अमृत का स्वाद लुटता है। आहा...हा...! समझ में आया? इस अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि अमृत के आनन्द के स्वाद की अभिलाषा में राग की भावना छूट जाती है – इस अपेक्षा से त्यागी है। श्रद्धा और सम्यग्ज्ञान की अवस्था की अपेक्षा से (त्यागी है)।
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy