SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा - ८२ इसी प्रकार धर्मी को सम्यग्दर्शन - ज्ञान और चारित्र की ऐसी लगन लगी होती है कि कहीं नहीं रुचता, कहीं मन नहीं ठहरता। समझ में आया ? व्यापार, धन्धा, बोलना, चलना, प्रतिष्ठा, कीर्ति कहीं मन नहीं ठहरता। अपने आनन्द की रुचि में तल्लीन होने के कारण बाहर का त्याग करके विशेष अनुभव करता है, उसका नाम निर्ग्रन्थदशा कहा जाता है। आहा... हा...! समझ में आया ? १३० वह लड़की बेचारी कहती थी, काका! मुझे कहीं (चैन नहीं पड़ता ) । पंखा चलाए (तो भी नहीं रुचता) अन्दर पीड़ा... पीड़ा... पीड़ा... पीड़ा... । एक गाय को हमने देखा था, यहाँ एक गाय थी।‘हीराभाई' के मकान में से (देखी थी), बड़ी गाय, हड़कने लगी। दो दिन ऐसे चक्कर लगाये, दो दिन तक पानी नहीं, आहार नहीं, रुचे नहीं; शरीर बड़ा लट्ठ, वह अन्त में नीचे गिरी तड़फी... तड़फी... तड़फी... कौवे माँस खायें फफोले चार-छह घण्टे ऐसे रही, तड़फी... तड़फी.... तड़फी... । वहाँ एक सिपाही निकला कहा देखो, कुछ है या नहीं ? क्या है यह ? कोई कर्म, कोई पाप, उसका फल ऐसा कुछ है या नहीं ? उसमें आत्मा है, देखो न ! अन्दर आत्मा है, वह अभी इस शरीर की स्थिति से तड़फता है । गाय का शरीर बड़ा लट्ठ जैसा, उसमें पागल हो गया। पछाड़े, पैर पछाड़े, पूंछ पछाड़े, पैर पछाड़े, अन्दर रहा न जाए। अड़तालीस घण्टे (के बाद मर गयी ) । इसी प्रकार धर्मी को बाहर कहीं चैन नहीं पड़ता । अपने आत्मा के अतीन्द्रिय आनन्द की प्रीति और रुचि हो गयी, तब से राग का त्याग है, परन्तु राग को रोग जानकर त्याग करने का अभिलाषी है, छोड़ने का अभिलाषी । आहा... हा...! अतीन्द्रिय अमृत का स्वाद, अतीन्द्रिय अमृत का उग्र स्वाद लेने की अभिलाषा क्यों न होगी ? कहते हैं कि सब छूट जाता है। श्रद्धा और ज्ञान की अपेक्षा से तो अवृत्त सम्यक्त्व के चौथे गुणस्थान में ही वह संन्यासी हो गया है... लो ! समझ में आया ? अब छठवें सातवें गुणस्थान में रहकर चारित्र की अपेक्षा से भी संन्यासी हो गया है... लो ! दो प्रकार के संन्यासी कहे । समझ में आया ? आहा... हा... ! मेरे आत्मा के अतिरिक्त मुझे कोई पदार्थ नहीं रुचता । समकिती को शुभभाव भी नहीं रुचता, आहा... हा... ! शुभभाव रुचे तो मिथ्यादृष्टि मूढ़ है ।
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy