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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) १२९ नहीं रुचता (इसलिए) अन्तर का आनन्द लेने के लिए बाहर का त्यागी हो जाता है। अन्दर का विशेष आनन्द लेने के लिए बाहर का त्यागी हो जाता है। कहीं नहीं रुचता, कहीं नहीं रुचता। रुचता नहीं अर्थात् श्रद्धा की बात नहीं, अस्थिरता में (नहीं रुचता), कहीं चैन नहीं पड़ता। व्यापार में, धन्धे में, पुत्र में, स्त्री सबके बीच बैठा हो परन्तु कहीं चैन नहीं पड़ता। तब उसे ऐसा होता है कि मैं तो आत्मा का विशेष अनुभव करने के लिए सबसे अलग हो जाता हूँ – इसका नाम मुनिपना कहा जाता है। आहा...हा...! समझ में आया? है न? आत्मतत्त्व का स्वाद लिया करे और बाहर जाने का कोई प्रपञ्च रुचे नहीं... बाहर जाने का अर्थात् बाहर व्यापार-धन्धे में । आत्मरस में मानो कि उन्मत्त हो जाए तब सकल बाह्य त्याग करके संन्यासी अथवा निर्ग्रन्थ... दिगम्बर मुनि। आहा...हा... ! जहाँ बैठे वहाँ वन, जहाँ जाए वहाँ जङ्गल। आहा...हा... ! तुम कैसे हो.... और यह सब विकल्प छूट गये। समझ में आया? अपने आत्मा का अनुभव करने में प्रयत्न उग्र हो गया, वहाँ वह बाहर का त्याग सहज हो जाता है। (अज्ञानी को) अन्तर का अनुभव और दृष्टि का भान नहीं है और बाहर का त्याग करता है, वह त्याग ही नहीं है। समझ में आया? कहीं नहीं रुचता। समझ में आया? हड़किया (पागल) कुत्ता काटा हो न? हड़किया समझे? क्या कहते हैं ? पागल कुत्ता। पागल कुत्ता काटे फिर कहीं नहीं रुचता। नहीं पानी, नहीं हवा, नहीं भोजन। हवा नहीं रुचती, हाँ! एक ब्राह्मण की लड़की थी, उसे सौंप गये थे, फिर अन्तिम बारह वर्ष तक जलांतक रोग। काका! मझे कहीं (चैन नहीं पडता)। फिर अन्तिम अडतालीस घण्टे पानी नहीं, आहार नहीं, पवन नहीं, कुछ नहीं रुचता। अन्दर में हड़क लगा, नजदीक नहीं आने दे। एक बाई को तो मैंने देखा है, वृद्ध थी, वृद्ध (वह कहे), मुझे दर्शन करना है, दूर खड़ी रही (फिर कहे) मुझे अन्दर से हड़क आवे तो ऐसा काट खाने का मन हो जाता है 'राणपुर'। वह लड़की तो बेचारी छोटी थी, अड़तालीस घण्टे न रुचे पवन, न रुचे पानी। पानी नजर में नहीं पड़ना चाहिए, पानी पड़े तो पीड़ा (होती है)। पानी नजर पड़े और पीड़ा हो। पागल होता है न, पागल कुत्ता, ऐसे कहीं रुची नहीं जमती।
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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