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________________ 255 गाथा १४३ चित्स्वरूप के पुंज द्वारा ही अपने उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य किये जाते हैं - ऐसा जिसका परमार्थस्वरूप है, इसकारण जो एक है; - ऐसे अपार समयसार को मैं समस्त बंधपद्धति को दूर करके अर्थात् कर्मोदय से होनेवाले समस्त भावों को छोड़कर अनुभव करता हूँ। यहाँ 'चित्स्वभावभर' पद का प्रयोग है, जो यह बताता है कि यह भगवान आत्मा चित्स्वभाव से भरा हुआ है तथा 'भावित भावाभावभाव' पद में भावअभाव-भाव में भाव माने उत्पाद, अभाव माने व्यय और भाव माने ध्रौव्य होता है। तात्पर्य यह है कि पहले भाव का अर्थ उत्पाद और दूसरे भाव का अर्थ ध्रौव्य लेना है। भावित का अर्थ है कि ये उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य चित्स्वभाव के द्वारा ही भावित हैं, होते हैं । द्रव्य होने से भगवान आत्मा का परमार्थस्वरूप; उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होना है और इसीकारण भगवान आत्मा एक है। ऐसा यह अपार समयसारस्वरूप भगवान आत्मा मैं स्वयं ही हूँ। ऐसा अनुभव करने से ही सम्पूर्ण बंधपद्धति से निवृत्ति होती है। इसकारण मैं समस्त बंधपद्धति का अभाव करता हुआ ऐसा अनुभव करता हूँ कि यह चैतन्यस्वरूप परमार्थ आत्मा मैं ही हूँ। इस सन्दर्भ में पाण्डे राजमलजी कलशटीका में लिखते हैं कि - "शुद्धस्वरूप का अनुभव होने पर जिसप्रकार नयविकल्प मिट जाते हैं, उसीप्रकार समस्त कर्मों के उदय से होनेवाले भाव भी मिट जाते हैं - ऐसा स्वभाव है।" इस कलश का भावानुवाद नाटक समयसार में बनारसीदासजी इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - ( सवैया इकतीसा ) जैसैं महा रतन की ज्योति मैं लहरि उठे, - जलकी तरंग जैसें लीन होय जल मैं। तैसें शुद्ध आतम दरब परजाय करि, . उपजै बिनसै थिर रहै निज थल मैं ॥
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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