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________________ समयसार अनुशीलन . 256 . ऐसै अविकलपी अजलपी अनंदरूपी, ____ अनादि अनंत गहि लीजै एक पल में । ताको अनुभव कीजै परम पीयूष पीजै, बंधको विलास डारि दीजै पुद्गल मैं ॥ जिसप्रकार महान रत्न की ज्योति में से लहरें उठती हैं और पानी की तरंगें पानी में ही विलीन हो जाती हैं; उसीप्रकार यह शुद्ध आत्मा अपने द्रव्य और पर्यायों के द्वारा अपने में ही उत्पन्न होता है, नष्ट होता है और स्थिर रहता है। ऐसे इस वाणी और विकल्पों से पार, आनन्दमयी, अनादि-अनन्त आत्मा को एक पल में ग्रहण कर लीजिए, इसका अनुभव कीजिए, परम-अमृत का पान कीजिए और बन्ध के विलास को पुद्गल में डाल दीजिए। देखो, यहाँ यह कह रहे हैं कि जिसप्रकार रत्नों की किरणें रत्नों में से निकलती हैं; उसीप्रकार आत्मा की पर्यायों का उत्पाद आत्मा में से ही होता है तथा जिसप्रकार जल की तरंगें जल में ही समा जाती हैं; उसीप्रकार आत्मा की पर्यायें, व्यय होकर आत्मा में ही समा जाती हैं और आत्मा द्रव्यरूप से सदा ही स्थिर रहता है। इसप्रकार यह भगवान आत्मा अपने में ही उत्पन्न होता है, नष्ट होता है और स्थिर रहता है। . यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहाँ उत्पाद को समझाने के लिए रत्न की ज्योति का और व्यय को समझाने के लिए जल की तरंगों का उदाहरण दिया है। जल की तरंगों के उदाहरण से यह बात भी स्पष्ट होती है कि जिसप्रकार जल की तरंगें जल में ही समा जाती हैं; उसीप्रकार व्यय होनेवाली पर्यायें द्रव्य में ही समाहित हो जाती हैं, कहीं बाहर नहीं चली जातीं। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वे पर्यायें व्यय होकर आत्मद्रव्य में उदयादि भावों के रूप में न रहकर पारिणामिकभाव के रूप में रहती हैं। यहाँ बनारसीदासजी कह रहे हैं कि हे भाई ! वाणी और विकल्पों से पार इस आनन्दमयी, अनादि-अनन्त आत्मा को इसी समय एक पल में ही ग्रहण कर लीजिए, इसका ही अनुभव कौजिए, परम-अमृत रस का पान कीजिए और
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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