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________________ समयसार अनुशीलन यह शर्त है कि किसी भी नयपक्ष को ग्रहण नहीं करे, बल्कि दोनों नयों के द्वारा वस्तु को यथार्थ जानकर नयपक्ष को भी छोड़कर मात्र आत्मवस्तु को ही ग्रहण करे। 254 प्रयोजनवश एक नय को प्रधान करके उसे ग्रहण करे, तो मिथ्यात्व नहीं होगा, मात्र चारित्रमोह का राग रहेगा। 'मैं शुद्ध, अखण्ड, एकरूप, आनन्दस्वरूप हूँ, ज्ञायक हूँ' - इस प्रयोजन को सिद्ध करने के लिए व्यवहारनय के पक्ष को गौण करके तथा निश्चयनय के पक्ष को मुख्य करके उसे ग्रहण करे, तो मिथ्यात्वरहित मात्र चारित्रमोह का राग रहता है। अनुभव होने के वाद भी 'मैं शुद्ध हूँ' - ऐसा प्रधानपने पक्ष रहे, तो वह रागरूप चारित्र का दोष है। उसे ज्ञानी यथावत् जानता है और उग्र पुरुषार्थ द्वारा स्वभाव का आश्रय करके उसे भी दूर करता है । तब और जब नयपक्ष को छोड़कर वस्तुस्वरूप को केवल जानता ही है, श्रुतज्ञानी भी केवलज्ञानी की तरह वीतराग जैसा ही होता है।" जो लोग स्वामीजी को एकान्ती होने का भ्रम पालते हैं, उन्हें स्वामीजी के उक्त कथनों पर ध्यान देना चाहिए तथा जो लोग उनके अनुयायी होते हुए भी एक पक्ष को ही सर्वथा स्वीकार करना चाहते हैं; उन्हें भी स्वामीजी के उक्त कथनों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। अब आगामी कलश में यह कहते हैं कि वह आत्मा ऐसा अनुभव करता है कि - ( स्वागता ) चित्स्वभावभरभावितभावाभावभावपरमार्थतयैकम् । बंधपद्धतिमपास्य समस्तां चेतये समयसारमपारम् ॥ ९२ ॥ ( रोला) मैं हूँ वह चित्पुंज कि भावाभावभावमय । परमारथ से एक सदा अविचल स्वभावमय ॥ कर्मजनित यह बंधपद्धति करूँ पार मैं । नित अनुभव यह करूँ कि चिन्मय समयसार मैं ॥ ९२ ॥ १. प्रवचनरत्नाकर, भाग ४, पृष्ठ ३४९
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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