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________________ 231 .. गाथा १४२ उक्त छन्द में 'स्वरूपगुप्त' पद आया है। आचार्य अमृतचन्द्र को यह पद अत्यन्त प्रिय है। वे इस पद का प्रयोग बार-बार स्वयं के लिए करते हैं। अन्तिम कलश, जो एक प्रकार से प्रशस्ति का छन्द है, उसमें वे स्वयं को स्वरूपगुप्त अमृतचन्द्र कहते हैं। यहाँ भी वे कह रहे हैं कि जो व्यक्ति स्वरूप में गुप्त रहकर निवास करते हैं, निजात्मस्वरूप का आश्रय करते हैं; वे साक्षात् अमृत का पान करते हैं। इसप्रकार स्वरूपगुप्त और अमृतचन्द्र - ये दोनों पद इस छन्द में भी आये हैं। उक्त छन्द का भाव पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा भावार्थ में इसप्रकार व्यक्त करते हैं - "जबतक कुछ भी पक्षपात रहता है, तबतक चित्त का क्षोभ नहीं मिटता। जब नयों का सब पक्षपात दूर हो जाता है, तब वीतरागदशा होकर स्वरूप की श्रद्धा निर्विकल्प होती है, स्वरूप में प्रवृत्ति होती है और अतीन्द्रिय सुख का अनुभव होता है।" इसीप्रकार का भाव कलश टीका में पाण्डे राजमलजी भी व्यक्त करते हैं; जो इसप्रकार है - "जो एक सत्त्वरूप वस्तु है, उसका द्रव्य-गुण-पर्यायरूप, उत्पाद-व्ययध्रौव्यरूप विचार करने पर विकल्प होता है, उस विकल्प के होने पर मन आकुल होता है, आकुलता दुःख है, इसलिए वस्तु मात्र के अनुभवने पर विकल्प मिटता है, विकल्प मिटने पर आकुलता मिटती है,आकुलता के मिटने पर दुःख मिटता है, इससे अनुभवशीली जीव परमसुखी है।" नाटक समयसार में इसका भावानुवाद इसप्रकार किया गया है - (सवैया तेईसा) जे न करै नयपच्छ विवाद, धेरै न विखाद अलीक न भाखें । ... जे उदवेग तजै घट अन्तर सीतलभाव निरन्तर राखें । जे न गुनी-गुन भेद विचारत, आकुलता मनकी सब नाखें। . ते जग मैं धरि आतम ध्यान, अखण्डित ग्यानसुधारस चाखें।
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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