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________________ समयसार अनुशीलन 232 - जो नयों के पक्ष में पड़कर विवाद नहीं करते हैं, चित्त में विषाद को नहीं रखते हैं,झूठ नहीं बोलते हैं, आंतरिक उद्वेग को छोड़ देते हैं और सदा ही शान्त रहते हैं, जो गुण-गुणी के विचार में भी नहीं उलझते हैं और मन की समस्त आकुलता को छोड़ देते हैं; वे जीव ही इस लोक में आत्मध्यान धारण करके अखण्डित ज्ञानामृत का रस चखते हैं, आत्मानुभव करते हैं। इसप्रकार यह स्पष्ट है कि इस छन्द में मात्र यही कहा गया है कि जो व्यक्ति नयंपक्षातीत होकर निजस्वरूप में निवास करते हैं; वे विकल्पजाल से रहित शान्तचित्तवाले व्यक्ति अतीन्द्रिय आनन्दामृत का पान करते हैं। तात्पर्य यह है कि आत्मानुभवी ही सुखी होते हैं। अब आचार्य अमृतचन्द्रदेव लगभग एक से ही भाव वाले २० छन्दों के माध्यम से नयपक्ष-संन्यास की भावना को नचाते हैं, आत्मानुभव की भावना को भाते हैं; जो इसप्रकार हैं - . ( उपजाति ) . एकस्य बद्धो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपाती । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥७०॥ एकस्य मूढो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खुल चिच्चिदेव ॥७१॥ एकस्य रक्तो न तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षपाती । बस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥७२॥ एकस्य दुष्टो न तथा परस्य चिति द्वघोविति पक्षपाती । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥७३॥ एकस्य कर्ता न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥७४॥ एकस्य भोक्ता न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपाती । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥७५॥ एकस्य जीवो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातौ । यस्तस्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥ ७६॥ एकस्य सूक्ष्मो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपाती । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥७७॥
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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