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________________ समयसार अनुशीलन - यहाँ यह कह रहे हैं कि 'मैं ऐसा हूँ' ऐसे नयपक्ष को छोड दे । 'आत्मा अबद्धस्पृष्ट है' - यह तो सत्य है। उस अबद्धस्पृष्ट आत्मा को छोड़ने की बात नहीं है, बल्कि 'मैं अबद्धस्पृष्ट हूँ' - ऐसा जो एक नयपक्ष का विकल्प है, उसको छोड़ने के लिए कहा जा रहा है; क्योंकि जो समस्त विकल्पों को छोड़ता है, वही समयसार को प्राप्त करता है, अनुभव करता है।' जहाँ यह कहा है कि ज्ञानी के सभी भाव ज्ञानमय ही हैं, वहाँ आशय यह है कि ज्ञानी को जो विकल्प आते हैं, वह उनको मात्र जानता है। जो विकल्प हैं, उनका ज्ञान स्वयं से उत्पन्न होता है और ज्ञानी उस ज्ञान का कर्ता है; परन्तु उस विकल्प का कर्त्ता ज्ञानी नहीं है। जिस जाति का विकल्प होता है, उसीप्रकार की ज्ञान में स्वपरप्रकाशक पर्याय स्वयं से उत्पन्न होती है। " 230 इसप्रकार हम देखते हैं कि आत्मख्याति टीका में न केवल समस्त नयों के पक्षपात से पार होने की ही बात है; पर प्रमाण संबंधी विकल्पों से विराम लेने की भी बात है। टीका के अन्त में कहा गया है कि 'यदि ऐसा है तो नयपक्ष के त्याग की भावना को वास्तव में कौन नहीं नचायेगा ।' - ऐसा कहकर आचार्य अमृतचन्द्र नयपक्ष के त्याग की भावनावाले २३ कलशरूप काव्य लिखते हैं; जिसमें पहला काव्य इसप्रकार है - ( उपेन्द्रवज्रा ) य एव मुक्त्वा नयपक्षपातं स्वरूपगुप्ता निवसंति नित्यम् । विकल्पजालच्युतशांतचितास्त एंव साक्षादमृतं पिवंति ॥ ६९ ॥ ( सोरठा ) जो निवसे निज माहि छोड़ सभी नय पक्ष को । करें सुधारस पान निर्विकल्प चित शान्त हो ॥ ६९ ॥ जो नयों के पक्षपात को छोड़कर सदा स्वरूप में गुप्त होकर निवास करते हैं, वे ही साक्षात् अमृत का पान करते हैं; क्योंकि उनका चित्त विकल्पजाल रहित हो गया है और एकदम शान्त हो गया है। १. प्रवचनरत्नाकर, भाग ४, पृष्ठ ३०८ २. वही, पृष्ठ ३१०
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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