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________________ समयसार गाथा १३२ से १३६ .. अण्णाणस्स स उदओ जा जीवाणं अतच्चठवलद्धी । मिच्छत्तस्स दु उदओ जीवस्स असद्दहाणतं ॥ १३२॥ उदओ असंजमस्स दुजं जीवाणं हवेई अविरमणं । जो दु कलुसोवओगो जीवाणं सो कसाउदओ ॥१३३॥ तं जाण जोग उदयं जो जीवाणं तु चिट्ठउच्छाहो । सोहणमसोहण वा कायव्वो विरदिभावो वा ॥१३४॥ एदेसु हेदुभूदेसु कम्मइयवग्गणागदं जं तु । परिणमदे अट्ठविहं णाणावरणादिभावेहिं ॥१३५॥ तं खलु जीवणिबद्धं कम्मइयवग्गणागदं जइया । तइया दु होदि हेदू जीवो परिणामभावाणं ॥१३६॥ निजतत्त्व का अज्ञान ही बस उदय है अज्ञान का । निजतत्त्व का अश्रद्धान ही बस उदय है मिथ्यात्व का ॥१३२॥ अविरमण का सद्भाव ही बस असंयम का उदय है। . उपयोग की यह कलुषता ही कषायों का उदय है ॥१.३३॥ शुभ-अशुभ चेष्टा में तथा निवृत्ति में या प्रवृत्ति में । जो चित्त का उत्साह है, वह ही उदय है योग का ॥१३४॥ इनके निमित्त के योग से जड़ वर्गणाएं कर्म की। परिणमित हों ज्ञान-आवरणादि वसुविध कर्म में ॥१३५॥ इसतरह वसुविध कर्म से आबद्ध जिय जब हो तभी । अज्ञानमय निजभाव का हो हेतु जिय जिनवर कही ॥१३६॥ जीवों के जो अतत्त्व की उपलब्धि है, तत्त्व संबंधी अज्ञान है, वह अज्ञान का उदय है; जो तत्त्व का अश्रद्धान है, वह मिथ्यात्व का उदय है; जो अविरमण है, अत्याग का भाव है, वह असंयम का उदय है; जो मलिन उपयोग है, वह कषाय का उदय है और जो शुभ या अशुभ, प्रवृत्तिरूप या निवृत्तिरूप चेष्टा का उत्साह है, उसे योग का उदय जानो।
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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