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________________ समयसार अनुशीलन 212 - जिसप्रकार मिथ्यादृष्टि के कर्म का उदय है, उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि के भी है; परन्तु सम्यग्दृष्टि जीव को शुद्धस्वरूप का अनुभव है, इसकारण कर्म के उदय को कर्मजातिरूप अनुभवता है, आपको शुद्धस्वरूप अनुभवता है। इसलिए कर्म के उदय से रंजायमान नहीं होता, इसलिए मोह-राग-द्वेषरूप नहीं परिणमता है, इसलिए कर्मबंधन नहीं होता है, इसलिए सम्यग्दृष्टि अशुद्धपरिणाम का कर्ता नहीं है।" ____ कलश टीका के उक्त भाव को हृदयंगम करके बनारसीदासजी ने उसे छन्द में इसप्रकार प्रस्तुत किया है - (छप्पय ) ज्यौं माटी मैं कलस होन की सकति रहे ध्रुव । दंड चक्र चीवर कुलाल बाहजि निमित्त हुव ॥ त्यौं पुद्गल परवांनु पुंज वरगना भेस धरि । ग्यानावरणादिक स्वरूप विचरंत विविध परि ॥ बाहजि निमित्त बहिरातमा गहि संसै अग्यानमति । जगमाहि अहंकृत भावसौं कामरूप द्वै परिनमति ॥ जिसप्रकार मिट्टी में घटरूप होने की शक्ति सदा विद्यमान रहती है और डंडा, चाक, धागा और कुम्हार आदि बाह्य निमित्त होते हैं; उसीप्रकार पुद्गलपरमाणुओं के पुंज कार्माणवर्गणाओं का भेष धारण करके ज्ञानावरणादि विविध रूप होकर विचरण करते हैं, तब उसमें बहिरात्मा अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव बाह्य निमित्त होता है। ऐसा होने पर अज्ञानमति बहिरात्मा संशयशील होकर कर्तृत्व का अहंकार करने लगता है, इसकारण वह कर्मबंध को प्राप्त होता है। .. इसप्रकार इस कलश में मात्र यही कहा गया है कि अज्ञानी जीव पुराने कर्म के उदय का लक्ष्य करके नवीन कर्मबंध के कारणरूप जो अज्ञानभाव है, उसके हेतुपने को प्राप्त होता है। यही बात आगामी गाथाओं में विस्तार से समझाई गई है।
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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