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________________ समयसार अनुशीलन 214 इन उदयों के हेतुभूत होने पर जो कार्माणवर्गणागत पुद्गलद्रव्य ज्ञानावरणादि भावरूप से आठ प्रकार परिणमता है, वह कार्माणवर्गणागत पुद्गलद्रव्य जब जीव से बंधता है, तब जीव अपने अज्ञानमय परिणाम भावों का हेतु होता है। प्रश्न : महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग - इन पाँच भावों को बंध का हेतु बताया गया है। यहाँ जो बताया जा रहा है, उसकी संगति तत्त्वार्थसूत्र के उक्त कथन से कैसे बैठे? ___ यद्यपि यहाँ इन गाथाओं में भी बंध के कारण तो पांच ही बताये हैं; तथापि यहाँ बताये पाँच कारणों में तत्त्वार्थसूत्र में तीसरे नम्बर पर आने वाला प्रमाद नहीं है तथा यहाँ प्रथम स्थान पर उल्लिखित अज्ञान तत्त्वार्थसूत्र में बताये गये कारणों में नहीं है। दूसरी बात यह है कि इसी समयसार शास्त्र में १०९वीं गाथा में बंध के कारण चार प्रत्यय ही बताये गये हैं, जो तत्त्वार्थसूत्र में बताये गये कारणों के समान ही हैं; परन्तु इनमें भी प्रमाद नहीं है। अतः प्रश्न यह है कि प्रथम तो दो आचार्यों में इसप्रकार का मतभेद क्यों है ? कदाचित् दो आचार्यों में मतभिन्नता हो भी सकती है; परन्तु एक ही आचार्य ने एक स्थान पर बंध के चार कारण बताये और दूसरे स्थान पर पाँच - यह कहाँ तक उचित है ? उत्तर : अरे भाई ! न तो यहाँ दो आचार्यों में कोई मतभेद है और न एक आचार्य ने एक ही ग्रन्थ में दो बातें कही हैं। समयसार गाथा १०९ में प्रमाद को अविरति और कषाय में गर्भित कर लिया है; क्योंकि चार कषाय, पाँच इन्द्रियों की आधीनता, चार विकथा, निद्रा और स्नेह - इनके मिश्रण का नाम ही तो प्रमाद है। गोम्मटसार जीवकाण्ड के गुणस्थानाधिकार में इसका विस्तृत विवेचन है। जिन्हें विशेष जिज्ञासा हो, उन्हें जीवकाण्ड के गुणस्थानाधिकार का अध्ययन करना चाहिए। १. तत्त्वार्थासूत्र, अध्याय ८, सूत्र - १
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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