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________________ 195 . गाथा १२१-१२५ इस गाथा की टीका लिखने के उपरान्त आचार्य जयसेन मोह पद को बदलकर उसके स्थान पर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, बुद्धि, उदय, शुभपरिणाम, अशुभपरिणाम, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन पद रखकर २० सूत्र बनाने का आदेश देते हैं। तथा यह भी लिखते हैं कि इसप्रकार अपने आत्मस्वभाव से भिन्न असंख्यातलोकप्रमाण विभावभाव हैं। - ऐसा जानना चाहिए। जो धम्मं तु मुइत्ता जाणदि उवओगमप्पगं सुद्धं । तं धम्मसंगमुक्कं परमट्ठवियाणया विति ॥ जो योगीन्द्र शुभोपयोगरूप धर्म परिणाम को, पुण्य को छोड़कर ज्ञानदर्शनस्वभावी आत्मा को शुभाशुभ संकल्प-विकल्पों से रहित अनुभव करते हैं; उन्हें परमार्थ के जाननेवाले सर्वज्ञ भगवान या ज्ञानीजन व्यवहार धर्मरूप पुण्य परिग्रह से रहित साधु कहते हैं। ___ उक्त गाथाओं पर गहराई से दृष्टिपात करते हैं तो निम्नांकित बातें विशेष ख्याल में आती हैं - (१) इन तीन गाथाओं में मध्य की गाथा ३२वीं गाथा के समान ही है; मात्र अन्तर इतना ही है कि उसमें समागत 'जिणित्ता' पद के स्थान पर इसमें 'मुइत्ता' पद आया है। जिणित्ता का अर्थ जीतकर होता है और मुइत्ता का अर्थ छोड़कर होता है। (२) यद्यपि परमवियाणया विति' पद तीनों ही गाथाओं में एक-सा । है; तथापि तात्पर्यवृत्ति में प्रथम गाथा में उसका अर्थ गणधरदेव और दूसरी गाथा में तीर्थंकरदेव तथा तीसरी गाथा में प्रत्यक्षज्ञानी अर्थ किया है। चूँकि सम्यग्दृष्टि ज्ञानी से लेकर सर्वज्ञ परमात्मा तक सभी लोग परमार्थ के ज्ञाता हैं; अतः मैंने इसका अर्थ तीर्थंकरदेव या ज्ञानीजन किया है। . - (३) तीसरी गाथा ३७वीं गाथा से मिलती-जुलती है; तथापि ३७वीं गाथा में 'धम्म' पद का प्रयोग धर्मद्रव्य के अर्थ में है और यहाँ पुण्यभाव के अर्थ में 'धम्म' पद का प्रयोग है।
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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