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________________ समयसार अनुशीलन 196 (४) प्रथम गाथा में 'शुद्ध' पद का अर्थ द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से रहित किया और तीसरी गाथा में शुभाशुभ संकल्प-विकल्पों से रहित किया है। इसका कारण यह प्रतीत होता है कि पहली गाथा में संग (परिग्रह) को छोड़ने की बात है और तीसरी गाथा में पुण्यभाव को छोड़ने की बात है। संग में बाह्य पदार्थ और रागादिविकार - सभी आ जाते हैं तथा द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म में भी सभी बाह्य परिग्रह तथा रागादि भावरूप अंतरंग परिग्रह - ये सभी आ जाते हैं। (५) १२५वीं गाथा में यह कहा था कि क्रोध में उपयुक्त आत्मा क्रोध है, मान में उपयुक्त आत्मा मान है, माया में उपयुक्त आत्मा माया है और लोभ में उपयुक्त आत्मा लोभ है। १२६वीं गाथा में यह कहने वाले हैं कि जो आत्मा जिस भाव को करता है, उस भाव का कर्त्ता होता है और ज्ञानी के सर्व भाव ज्ञानमय होते हैं और अज्ञानी के अज्ञानमय। १२५वीं गाथा में क्रोधादिरूप अज्ञानमयभाव की बात तो आ गई थी, पर ज्ञानमयभावों की बात नहीं आई थी। अतः उक्त तीन गाथाओं में ज्ञानमय भावों की चर्चा की गई है। देख ! देख !! देख !!! अपनी ओर देख ! एक बार इसी जिज्ञासा से अपनी ओर देख !! जानने लायक, देखने लायक एकमात्र आत्मा ही है, अपना आत्मा ही है। यह आत्मा शब्दों में नहीं समझाया जा सकता, इसे वाणी से नहीं बताया जा सकता। यह शब्दजाल और वाविलास से परे है। यह मात्र जानने की वस्तु है, अनुभवगम्य है। यह अनुभवगम्य आत्मवस्तु ज्ञान का घनपिण्ड है और आनन्द का कन्द है। अतः समस्त परपदार्थों, उनके भावों एवं अपनी आत्मा में उठने वाले विकारी-अविकारी भावों से भी दृष्टि हटाकर एक बार अन्तर में झाँक! अन्तर में देख, अन्तर में ही देख! देख!! देख!!! - तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ ७६
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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