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________________ समयसार अनुशीलन 194 ' अपनी परिणमनशक्ति से ही अपने में अपना कार्य होता है, पर से नहीं। भाई ! यदि यह एक सिद्धान्त ही अच्छी तरह यथार्थ समझ में आ जावे, तो सर्व समाधान हो जायें। यह ऐसी अद्भुत बात है। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। एक द्रव्य की पर्याय कोई अन्य द्रव्य नहीं कर सकता। जीव में स्वतः निर्विघ्न परिणमनशक्ति है। तात्पर्य यह है कि जीव की परिणमनशक्ति किसी अन्य द्रव्य के आश्रित नहीं है। जब जीव निर्मल या मलिनभाव से परिणमित होता है, तब उसकी निर्मल या मलिन पर्याय स्वयं से होती है, पर से या कर्म से नहीं; उसीप्रकार जब कोई भी परमाणु पलटता है, तो वह भी अपनी परिणमनशक्ति से ही पलटता है, आत्मा से नहीं। प्रत्येक पदार्थ में अनादि-अनन्त परिणमनस्वभाव है; इसकारण प्रतिसमय वह स्वयं से परिणमता है, पर से नहीं - ऐसी ही वस्तुस्थिति है।" इन गाथाओं के बाद आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति टीका में तीन गाथायें आती हैं, जो आत्मख्याति में नहीं हैं। वे गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं - जो संगं तु मुइत्ता जाणदि उवओगमप्पगं सुद्धं । तं णिस्संगं साहुं परमट्ठवियाणया विति ॥ ... ___ जो साधु बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह को छोड़कर ज्ञानदर्शनस्वभावी आत्मा को द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से रहित शुद्ध जानता है, अनुभव करता है; उस निसंग साधु को परमार्थ के जानने वाले सर्वज्ञ परमात्मा या ज्ञानीजन साधु कहते हैं। जो मोहं तु मुइता णाणसहावाधियं मुणदि आदं। . तं जिदमोहं साहुं परमट्ठवियाणया विति ॥ जो परमसाधु समस्त चेतन-अचेतन एवं शुभाशुभ परद्रव्यों में मोह छोड़कर ज्ञानस्वभावी आत्मा को जानते हैं, परद्रव्यों से भिन्न अनुभव करते हैं; उसे परमार्थ को जाननेवाले सर्वज्ञ परमात्मा या ज्ञानीजन जितमोह साधु कहते हैं। १. प्रवचनरत्नाकर, भाग ४, पृष्ठ २४२-२४३
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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