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________________ 137 कलश ६ इसलिए आचार्य कहते हैं कि इन नवतत्त्वों की संतति (परिपाटी) को छोड़कर शुद्धनय का विषयभूत एक आत्मा ही हमें प्राप्त हो; हम दूसरा कुछ नहीं चाहते। यह वीतराग अवस्था की प्रार्थना है, कोई नयपक्ष नहीं है । यदि सर्वथा नयों का पक्षपात ही हुआ करे तो मिथ्यात्व ही है । यहाँ कोई प्रश्न करता है कि आत्मा चैतन्य है, मात्र इतना ही अनुभव में आये तो इतनी श्रद्धा सम्यग्दर्शन है या नहीं ? उसका समाधान यह है - नास्तिकों को छोड़कर सभी मतवाले आत्मा को चैतन्यमात्र मानते हैं; यदि इतनी ही श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहा जाये तो सबको सम्यक्त्व सिद्ध हो जायेगा, इसलिए सर्वज्ञ की वाणी में जैसा सम्पूर्ण आत्मा का स्वरूप कहा है, वैसा श्रद्धान होने से ही निश्चयसम्यक्त्व होता है, ऐसा समझना चाहिए।" उक्त कथन से यह बात अत्यन्त स्पष्ट है कि आत्मानुभव के लिए परमागम में दृष्टि के विषयभूत भगवान आत्मा का जो स्वरूप बताया गया है, उसे आगम के अभ्यास से एवं गुरुमुख से सुनकर अच्छी तरह समझना चाहिए । राजमार्ग यही है। कभी किसी को इसके बिना सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति होती देखी गई हो, सुनी गई हो, तो उसे अपवाद ही समझना चाहिए, राजमार्ग नहीं; क्योंकि उसे पूर्वभव में या इसी भव में पहले कभी देशना उपलब्ध हो गई होगी या आगमाभ्यास से उसे यह बात ख्याल में आ गई होगी। इसप्रकार के उदाहरणों का बहाना बनाकर आगमाभ्यास और देशनालब्धि की उपेक्षा करना ठीक नहीं है। भगवान आत्मा का सच्चा स्वरूप समझे बिना 'आत्मा चैतन्य है' मात्र इतना विचारते रहने से कुछ भी उपलब्ध होनेवाला नहीं है यह बात अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। - अब आगामी कलश में यह कहते हैं कि शुद्धनय के आश्रय से परद्रव्यों से भिन्न जो आत्मज्योति प्रगट होती है, वह आत्मज्योति नवतत्त्वों को प्राप्त होकर भी एकत्व को नहीं छोड़ती है।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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