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________________ 136 समयसार अनुशीलन से उत्पन्न होनेवाले निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के प्रति रुचि, श्रद्धा, आस्था व्यक्त की गई है; क्योंकि सच्चा मुक्ति का मार्ग वही है। उक्त कलश के भावार्थ में पण्डित श्री जयचंदजी छाबड़ा ने बहुत अच्छा स्पष्टीकरण किया है, जो मूलतः इसप्रकार है - ___ "सर्व स्वाभाविक तथा नैमित्तिक अपनी अवस्थारूप गुणपर्यायभेदों में व्यापनेवाला यह आत्मा शुद्धनय से एकत्व में निश्चित किया गया है - शुद्धनय से ज्ञायकमात्र एक-आकार दिखलाया गया है, उसे सर्व अन्यद्रव्यों और अन्यद्रव्यों के भावों से अलग देखना, श्रद्धान करना सो नियम से सम्यग्दर्शन है। व्यवहारनय आत्मा को अनेक भेदरूप कहकर सम्यग्दर्शन को अनेक भेदरूप कहता है, वहाँ व्यभिचार (दोष) आता है, नियम नहीं रहता। शुद्धनय की सीमा तक पहुँचने पर व्यभिचार नहीं रहता, इसलिए नियमरूप है। शुद्धनय का विषयभूत आत्मा पूर्ण ज्ञानघन है - सर्व लोकालोक को जाननेवाला ज्ञानस्वरूप है। ऐसे आत्मा का श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन है। यह कहीं पृथक् पदार्थ नहीं है; आत्मा का ही परिणाम है, इसलिए आत्मा ही है। अत: जो सम्यग्दर्शन है सो आत्मा है, अन्य नहीं। __ यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि जो नय हैं सो श्रुतप्रमाण का अंश है, इसलिये शुद्धनय भी श्रुतप्रमाण का ही अंश हुआ। श्रुतप्रमाण परोक्ष प्रमाण है; क्योंकि वस्तु को सर्वज्ञ के आगम के वचन से जाना है; इसलिए यह शुद्धनय सर्व द्रव्यों से भिन्न, आत्मा की सर्व पर्यायों में व्याप्त पूर्ण चैतन्य केवलज्ञानरूप - सर्व लोकालोक को जाननेवाले, असाधारण चैतन्यधर्म को परोक्ष दिखाता है । यह व्यवहारी छद्मस्थ जीव आगम को प्रमाण करके शुद्धनय से दिखाये गये पूर्ण आत्मा का श्रद्धान करे तो वह श्रद्धान निश्चयसम्यग्दर्शन है। जबतक केवल व्यवहारनय के विषयभूत जीवादिक तत्त्वों का ही श्रद्धान रहता है तबतक निश्चयसम्यग्दर्शन नहीं होता।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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