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________________ समयसार अनुशीलन 138 ( अनुष्टुभ् ) अतः शुद्धनयायत्तं प्रत्यग्ज्योतिश्चकास्ति तत्। नवतत्त्वगतत्वेपि यदेकत्वं न मुंचति ॥ ७॥ (दोहा ) शुद्धनयाश्रित आतमा प्रगटे ज्योतिस्वरूप। नवतत्त्वों में व्याप्त पर तजे न एकस्वरूप॥७॥ अतः शुद्धनय के आश्रय से पर से भिन्न जो आत्मज्योति प्रगट होती वह नवतत्त्वों को प्राप्त होकर भी एकत्व को कभी नहीं छोड़ती। उक्त छन्द का अर्थ करते हुए कलशटीका में कहा गया है - "जैसे अग्नि दाहक लक्षणवाली है, वह काष्ठ, तृण, कण्डा आदि समस्त दाह्य को दहती है, दहती हुई अग्नि दाह्याकार होती है, पर उसका विचार है कि जो उसे काष्ठ, तृण और कण्डे की आकृति में देखा जाय तो काष्ठ की अग्नि, तृण की अग्नि और कण्डे की अग्नि ऐसा कहना साँचा ही है और जो अग्नि की उष्णतामात्र विचारा जाय तो उष्णमात्र है। काष्ठ की अग्नि, तृण की अग्नि और कण्डे की अग्नि ऐसे समस्त विकल्प झूठे हैं । उसीप्रकार नौ तत्त्वरूप जीव के परिणाम हैं । वे परिणाम कितने ही शुद्धरूप हैं, कितने ही अशुद्धरूप हैं । जो नौ परिणाम में ही देखा जाय तो नौ ही तत्त्व साँचे हैं और जो चेतनामात्र अनुभव किया जाय तो नौ ही विकल्प झूठे हैं।" ___ कलशटीका के उक्त भाव को कविवर पण्डित बनारसीदासजी ने इकतीसा सवैया छन्द में इसप्रकार प्रस्तुत किया है - जैसैं तृण काठ बांस आरने इत्यादि और, ईंधन अनेक विधि पावक मैं दहिये। आकृति विलोकित कहावै आग नानारूप, दीसे एक दाहक सुभाव जब गहिये। तैसैं नव तत्त्व मैं भयौ है बहु भेषी जीव, सुद्धरूप मिश्रित असुद्धरूप कहिये ।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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