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________________ गाथा २५१ प्रवचनसार गाथा २५१ विगत गाथा में 'मुनिराजों द्वारा की जानेवाली वैयावृत्ति पूर्णतः अहिंसक होती हैं' ह्न यह स्पष्ट करने के उपरान्त अब इस गाथा में शुभोपयोगी मुनिराजों द्वारा की जानेवाली प्रवृत्ति के विषय को दो भागों में विभाजित करते हैं । गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र । जोण्हाणं णिरवेक्खं सागारणगारचरियजुत्ताणं । अणुकंपयोवयारं कुव्वदु लेवो जदि वि अप्पो।।२५१।। (हरिगीत) दया से सेवा सदा जो श्रमण-श्रावकजनों की। करे वह भी अल्पलेपी कहा है जिनमार्ग में ||२५१|| यद्यपि अल्पलेप होता है; तथापि साकार-अनाकार जैनों का अथवा श्रावक और मुनिराजों का अनुकम्पा से निरपेक्षतया उपकार करो। इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न "यद्यपि अनुकम्पापूर्वक परोपकाररूप प्रवृत्ति करने से भी अल्पलेप होता है; तथापि अनेकान्त से मैत्री रखनेवाले जैनों के प्रति एवं शुद्धात्मा के ज्ञान-दर्शन में प्रवर्तमान परिणति के कारण साकार-अनाकार चर्यावालों के प्रति, शुद्धात्मा की उपलब्धि के अतिरिक्त अन्य सबकी अपेक्षा किये बिना ही उपकार करनेरूप प्रवृत्ति का निषेध नहीं है; किन्तु अत्यल्पलेपवाली होने से सबके प्रति सभी प्रकार से वह प्रवृत्ति अनिषिद्धि हो ह्र ऐसी बात नहीं है; क्योंकि उसप्रकार की प्रवृत्ति से पर की और निज की शुद्धात्मपरिणति की रक्षा नहीं होती।" ___ उक्त कथन में यद्यपि आचार्य अमृतचन्द्र सागारणगारचरिय पद का अर्थसाकार और अनाकार उपयोगरूपचर्चावाले करते हैं; तथापि आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में उक्त पद का अर्थ सागार (श्रावक) और अनगार (मुनिराज) करते हैं। ___ पण्डित देवीदासजी और कविवर वृन्दावनदासजी ने भी इस गाथा के भाव को प्रस्तुत करते हुए आचार्य जयसेन का ही अनुसरण किया है। उन्होंने भी सागारणगार का अर्थ श्रावक और मुनिराज ही किया है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र __ "शुभराग के कारण पुण्यबंध होता है, किन्तु वह आत्मा की शांति को रोकता है तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय आदि पाप-प्रकृतियों का भी बंध कराता है। इसप्रकार शुभभाव से पाप व पुण्य दोनों का बंध होता है। यद्यपि शुभरागरूप प्रवृत्ति बंध का कारण है, तथापि जिसे स्वयं के शुद्धस्वभाव का प्रेम है, उसे शुद्ध आत्मा के साधक जीवों के प्रति भी शुभराग होता है। उसका यहाँ निषेध नहीं है। सच्चे मुनिराज के शरीर में रोग हुआ हो अथवा उन्हें थकान लगी हो तो शुभोपयोगी जीव को उनकी वैयावृत्ति का विकल्प आता है; किन्तु वह विकल्प बंध का कारण है, धर्म का कारण नहीं। शुभराग से ज्ञानावरणाादि प्रकृतियाँ बंधती हैं ह्र ऐसा मानकर शुभ को जहर माने और स्वरूपस्थिता नहीं हो सके, तब उसे सच्चे ज्ञान-श्रद्धा वाले जैनियों के प्रति वैयावृत्ति का शुभराग आता है, इस शुभराग में किसी अन्य की अपेक्षा नहीं है। स्व-पर शुद्धात्मा की परिणति में निमित्त हो ह्र यही अपेक्षा है। इसप्रकार के शुभराग का यहाँ निषेध नहीं है।' वस्तुस्वरूप के विपरीत मान्यतावाले जीवों के प्रति शुभराग का निषेध है। शुभाशुभ भाव स्वयं की हिंसा है; क्योंकि यह अपने ज्ञातादृष्टास्वभाव से विपरीत भाव है। चिदानन्द आत्मा के श्रद्धा-ज्ञान सहित वीतरागी दशा ही अहिंसा है।' १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ ३२१ २. वही, पृष्ठ ३२२ ३. वही, पृष्ठ ३४१-३४२ ४. वही, पृष्ठ ३४२
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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