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________________ १२४ प्रवचनसार अनुशीलन उत्सर्गमार्ग के पक्षपाती कोई मुनिराज सदा हठपूर्वक कठोर आचरण का पालन करते हैं और कोमल मग में कदम रखते हुए हीन भावना ग्रस्त होकर लज्जित होते हैं तथा देश-काल और अपने शरीर की स्थिति देखकर आचरण नहीं करते हैं; वे भी अनेकान्त से विमुख होकर अपना बिगाड़ करते हैं। वे मुनिराज अत्यधिक परिश्रम के कारण देह को तजकर देवलोक में चले जाते हैं। वहाँ जाकर संयम अमृत का वमन करके विशेष कर्मों का बंध करते हैं। इसलिए जिस पथ में अपने शुद्धात्मा की सिद्धि के साथ-साथ कर्म भी अल्प बँधे; उस संयम सहित विशुद्ध पथ में अपने कदम बढाओ। (दोहा) है सरवज्ञ जिनिंद को, अनेकांत मत मीत । तातें दोनों पंथ सों, हे मुनि राखो मीत ।।१६६।। कहुँ कोमल कहुँकठिन व्रत, कहुँ जुगजुत वरतंत । शुद्धातम जिहि विधि सधै, वह मुनिमग सिद्धंत ।।१६७।। संजमभंग बचायकै, देश काल वपु देखि । कोमल कठिन किया करो, करम न बँधे विशेखि ।।१६८।। अरु अस हठ मति राखियो, संजम रहै कि जाहि । हम इक दशा न छाँड़ि हैं, सो यह जिनमत नाहि ।।१६९।। जैसो जिनमत है सोई, कहो तुम्हें समुझाय । जो मग में पग धारि मुनि, पहुँचे शिवपुर जाय ।।१७०।। हे मित्र ! यह अनेकान्त मत सर्वज्ञ भगवान जिनेन्द्रदेव का है; इसलिए हे मुनिराजो ! उत्सर्ग और अपवाद ह्न दोनों पंथों से मित्रता रखो। ___ हे मुनिवरो ! जिसप्रकार शुद्धात्मा की सिद्धि हो ह्र ऐसे कभी कोमल, कभी कठोर और कभी दोनों प्रकार के आचरण को एकसाथ पालन करो; क्योंकि मुनिपथ का यही सिद्धान्त है। संयम के भंग को बचाकर कोमल आचरण और देश-काल व शरीर गाथा २३१ १२५ को देख कर कठोर आचरण किया करो; क्योंकि ऐसा करने से कर्मों का विशेष बंध नहीं होता। ऐसा हठ कभी मत रखना कि संयम चाहे रहे, चाहे चला जाय; हम कोमल या कठोर ह्न दोनों में से एक मार्ग का आचरण करेंगे; क्योंकि जिनमत में ऐसा नहीं है। ___ जैनमत में जैसा मार्ग बताया गया है; उसे हमने तुम्हें समझाकर बता दिया है। यह वही मार्ग है; जिस पर चलकर अनेक मुनिराज शिवपुर (मोक्ष में) पहुँच गये हैं। (दोहा) कहूँ अकेलो है यही, जो मारग अपवाद। कहूँ अकेलो लसतु है, जो उतसर्ग अनाद ।।१७१।। कहँ उतसर्ग समेत है, यहु मारग अपवाद। कहँ अपवाद समेत है, मग उतसर्ग अवाद ।।१७२।। ज्यों संजमरच्छा बनत, त्यों ही करहिं मुनीश । देशकालवपु देखि कै, साघहिं शुद्ध सुईश ।।१७३।। पूरव जे मुनिवर भये, ते निजदशा निहार। दोनों मग की भूमि में, गमन किये सुविचार ।।१७४।। निज चैतन्यस्वरूप जो, है सामान्य विशेष । ताही में थिर होय के, भये शुद्ध सिद्धेश ।।१७६।। जो या विधि सों और मुनि, द्वै सुरूप में गुप्त । सो निज ज्ञानानंद लहि, करै करम को लुप्त ।।१७७।। यहाँ चार प्रकार की स्थितियाँ बनती हैं। कहीं अकेला अपवादमार्ग होता है और कहीं अकेला उत्सर्गमार्ग शोभायमान होता है ह्र यह अनादि की स्थिति है। कहीं उत्सर्ग सहित अपवादमार्ग होता है और कहीं अपवाद सहित उत्सर्गमार्ग होता है। जिसप्रकार संयम की रक्षा हो, मुनिराज वैसा ही करते हैं। वे देश, काल और शरीर की स्थिति को देखकर शुद्धात्मा की साधना करते हैं।
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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