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________________ गाथा २३१ १२३ १२२ प्रवचनसार अनुशीलन आहार-विहार में प्रवृत्ति करे तो उसे मृदु आचरण में प्रवृत्त होने से अल्पलेप ही होता, अधिक लेप नहीं होता; इसलिए अपवादमार्ग ही अच्छा है। यदि देश-कालज्ञ भी बाल-वृद्ध-श्रान्त-ग्लानत्वके अनुरोध से किये जानेवाले आहार-विहार से होनेवाले अल्पलेप के भय से अपवादमार्ग में प्रवृत्ति न करे तो अति कर्कश आचरण से अक्रम से शरीर का पात करके देवलोक में चला जाता है। वहाँ उसे समस्त संयमामृत का वमन हो जाता है और तप करने का अवकाश ही नहीं रहता है; इसकारण महान लेप होता है, क्योंकि वहाँ उसका प्रतिकार अशक्य है; इसलिए अपवाद निरपेक्ष उत्सर्गमार्ग श्रेष्ठ नहीं है। ___ यदि देश-कालज्ञ भी बाल-वृद्ध-श्रान्त-ग्लानत्व के अनुरोधसे किये जानेवाले आहार-विहार से होनेवाले अल्पलेप को न गिनकर अपवादमार्ग में स्वच्छन्द प्रवृत्ति करे तो मृदु आचरणरूप होकर असंयत जनों के समान संयम विरोधी होने से उस समय तप करने का अवकाश ही नहीं रहता है; इसकारण महानलेप होता है; क्योंकि उसका प्रतिकार अशक्य है। इसलिए उत्सर्ग निरपेक्ष अपवादमार्ग श्रेष्ठ नहीं है। इसलिए उत्सर्ग और अपवाद के परस्पर विरोध से होनेवाला दुस्थित आचरण सर्वथा निषेध्य है, त्यागने योग्य है। इसीलिए परस्पर सापेक्ष उत्सर्गमार्ग और अपवादमार्ग से जिसकी वृत्ति प्रगट होती है ह्र ऐसा स्याद्वाद ही सर्वथा अनुसरण करने योग्य है।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए पूर्णत: तत्त्वप्रदीपिका टीका का अनुसरण करते हैं। इस गाथा के भाव को पंडित देवीदासजी १ इकतीसा सवैया में और कविवर वृन्दावनदासजी १ मनहरण, ४ चौपाई और २१ दोहे ह्र इसप्रकार २६ छन्दों में विस्तार से समझाते हैं। यद्यपि सभी छन्द मूलत: पठनीय हैं; तथापि यहाँ सभी को देना तो संभव नहीं है; अत: मूल विषय को सरल भाषा में स्पष्ट करनेवाले कतिपय महत्त्वपूर्ण दोहे दिये जा रहे हैं; जो इसप्रकार हैं ह्र (दोहा) कोमल ही मग के विर्षे, जो इकंत बुधि धार । अनुदिन अनुरागी रहे, अरु यह करै विचार ।।१५८।। कोमल हू मग तो कही, जिन सिद्धान्त मँझार। हम याही मग चलहिंगे, यामें कहा बिगार ।।१५९।। तो वह हठग्राही पुरुष, संजमविमुख सदीव । शकति लोपि करनी करत, शिथिलाचारी जीव ॥१६०।। ताको मुनिपद भंग है, अनेकांतच्युत सोय । बाँधे करम विशेष सो, शुद्ध सिद्ध किमि होय ।१६१।। अपवाद मार्ग के पक्षपाती कोई मुनिराज यदि कोमल मार्ग में चलने का एकान्त आग्रह रखते हुए उसी के अनुरागी बन कर रहते हैं और यह सोचते हैं कि जैनसिद्धान्त में कोमल आचरण को भी मार्ग कहा है; इसलिए हम तो अकेले इसी पर चलेंगे। अकेले इसी पर चलने में क्या हानि है ? आचार्य कहते हैं कि ऐसा कहनेवाला वह पुरुष हठग्राही है, संयम से सदा विमुख है और वह शिथिलाचारी जीव अपनी शक्ति का लोप करके मनमानी करनी करता है। उस पुरुष का मुनिपद भंग ही है, वह अनेकान्त से च्युत होकर विशेष कर्मों का बंध करता है; उसे शुद्धता की सिद्धि कैसे हो सकती है? (दोहा) अरु जे कठिनाचार ही, हठकरि सदा करात । कोमल मग पग धारतें, लघुता मानि लजात ।।१६२।। देशकालवपु देखिकै, करहिं नाहिं आचार। अनेकांत सों विमुख सो, अपनो करत बिगार ।।१६३।। वह अति श्रम तैं देह तजि, उपजै सुरपुर जाय । संजम अम्रत वमन करि, करम विशेष बँधाय ।।१६४।। तातें करम बँधे अलप, सधै निजातम शुद्ध। सोई मग पग धारियो, संजम सहित विशुद्ध ।।१६५।।
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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