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________________ गाथा २३१ १२७ १२६ प्रवचनसार अनुशीलन पूर्वकाल में जो मुनिराज हो गये हैं; उन्होंने अपनी स्थिति को देखकर विचारपूर्वक दोनों मार्गों की भूमि पर विचरण किया है। सामान्य-विशेषात्मक निज चैतन्यस्वरूप में स्थिर होकर मुनिराजों ने शुद्ध सिद्धपद की प्राप्ति की है। अन्य मुनिराज भी इस विधि को अपनाकर, स्वरूप में गुप्त होकर, कर्मों का लोप करके अपने ज्ञानानंद को प्राप्त कर सकते हैं। __ आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "जब मुनिराज शुद्धभाव में स्थिर नहीं होते, तब हठरहित शुभोपयोग आता है, उससे अल्पबंधन होता है। तीव्रबंधन नहीं होता; इस अपेक्षा से अपवाद अच्छा है; किन्तु अबंधपने की अपेक्षा से तो अल्पबंधन भी अच्छा नहीं है अर्थात् वास्तव में तो एकमात्र उत्सर्ग मार्ग ही अच्छा है तथा तीव्र बंधन की अपेक्षा से अल्प बंधन रूप अपवादमार्ग अच्छा है। अतः मुनिराज विवेकपूर्वक उत्सर्ग के समय उत्सर्ग में और अपवाद के समय अपवाद में वर्तते हैं।' यह जीव एकांत उत्सर्ग में ही वर्तने का हठ करें और छठवें गुणस्थान में कोई विकल्प आये और उसका विवेक न रखें तो हठपूर्वक देह छूटकर स्वर्ग में जायेगा और वहाँ असंयमी होगा। असंयमीपने में तो तीव्र बंधन ही है; इसलिये विवेक की डोरी हाथ में रखो। चैतन्य की दृष्टि और ज्ञान करके विवेकपूर्वक वर्तन करो। स्वभाव में लीनता करना उत्सर्गमार्ग है और विकल्प उत्पन्न होने पर २८ मूलगुणों का पालन करना अपवादमार्ग है। वीतरागी भगवान का मार्ग अनेकान्तस्वरूप है। अपने परिणामों की जाँच करके जैसे भी लाभ हो, उसप्रकार से आचरण करना ही भगवान का उपदेश है। शारीरिक स्थिति सबल अथवा निर्बल हो तो भी एक ही प्रकार से वर्तन करना ह्र ऐसा जिनमार्ग नहीं है। शारीरिक स्थिति निर्बल हो तो अधिक विहार अथवा तप नहीं करना, इसीप्रकार शिथिलता न आवे ह्न १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-१५८ २. वही, पृष्ठ-१५९ इसका ख्याल रखना चाहिए ह्र ऐसा ही मुनिमार्ग है।" इस गाथा का निष्कर्ष यह है कि जबतक शुद्धोपयोग में पूर्णत: लीन न हो जाय, तबतक साधना के लिए उत्सर्ग और अपवादमार्ग की मित्रता को साधना चाहिए। अपनी निर्बलता का लक्ष्य रखे बिना उत्सर्ग मार्ग के आग्रह से अति कर्कश आचरण का हठ नहीं रखना चाहिए। __इसीप्रकार उत्सर्गरूप ध्येय की उपेक्षा कर मात्र अपवाद के आश्रय से शिथिलता का सेवन भी नहीं करना चाहिए। इसप्रकार वर्तन करना चाहिए कि जिसमें हठ भी न हो और शिथिलता भी न हो । हठ से कठोर आचरण और शिथिलता से कोमल आचरण ह्र दोनों में ही संयम का नाश होता है। अत: न तो उत्सर्ग के हठ से कठोर आचरण करना चाहिए और न अपवाद के छल से अति मृदु आचरण करना चाहिए। सर्वज्ञ भगवान का मार्ग अनेकान्तरूप है; इसलिए अपनी स्थिति का विचार कर जो भी लाभकर लगे, उसप्रकार से आचरण करना चाहिए। इसके उपरान्त आचार्य अमृतचन्द्रदेव चरणानुयोगसूचक चूलिका नामक महाधिकार में समागत आचरण प्रज्ञापन अधिकार का समापन करते हुए तत्त्वप्रदीपिका टीका में एक छन्द लिखते हैं; जो इसप्रकार हैह्न (शार्दूलविक्रीडित) इत्येवं चरणं पुराणपुरुषैर्जुष्टं विशिष्टादरैरुत्सर्गादपवादतश्च विचरद्वीह्वीः पृथग्भूमिकाः। आक्रम्य क्रमतो निवृत्तिमतुलां कृत्वा यति: सर्वतश्चित्सामान्यविशेषभासिनि निजद्रव्ये करोतु स्थितिम् ।।१५।। (मनहरण कवित्त) उतसर्ग और अपवाद के विभेद द्वारा। भिन्न-भिन्न भूमिका में व्याप्त जो चरित्र है। पुराणपुरुषों के द्वारा सादर है सेवित जो। उसे प्राप्त कर संत हुए जो पवित्र हैं। १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-१६१
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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