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________________ १९८ प्रवचनसार अनुशीलन अनन्त शांति भरी है, उसमें शांति न मानकर बाह्य में शांति मानता है। अज्ञानी परिपूर्ण शुद्ध स्वभाव से धर्म न मानकर पुण्य से धर्म मानता है । ज्ञान-दर्शन स्वभाव के आधार से धर्म और वीतरागता प्रगट होती है; उसे नहीं मानता। ऐसे पुरुषों के प्रति जो जीव उपकार करते हैं, उसके फल में कुदेवपना व कुमनुष्यपना मिलता है। जो जीव पुण्य से धर्म मानते या मनाते हैं। पूजा-व्रतादि से धर्म होना मानते हैं वे अज्ञानी हैं। जो जीव शुभभाव अथवा दया दानादि से पाप होगा ह्न ऐसा मानते हैं, वे तो तीव्र मिथ्यादृष्टि हैं, उनकी तो यहाँ बात ही नहीं है। दया - दानादि के भाव पुण्य हैं; किन्तु जो पुण्य को धर्म का कारण मानता है, वह आत्मा को नहीं मानता, भगवान को भी नहीं मानता, उसे कदापि धर्म नहीं हो सकता, वह जीव वीतरागी दशा प्राप्त नहीं कर सकता । " जो जीव अज्ञानी जीवों के प्रति शुभभाव करते हैं, उनकी सेवा करते हैं, पूजा, दया- दान करते हैं, उन्हें पुण्यबंध तो होता है; किन्तु कारण में विपरीतता होने से फल में भी विपरीतता ही होती है। इसकारण वे जीव व्यंतर, भवनवासी जाति के निम्न देव अथवा रोगी, निर्धन मनुष्य होते हैं। पुण्य के तीन प्रकार कहे हैं ह्र १. चैतन्य स्वभाव के आदर से युक्त धर्मी जीव को शुभराग के फल श्रेष्ठ पुण्यबंध होता है, उसे क्रम से नष्ट करके वह शीघ्र ही मोक्षदा प्राप्ति करता है। २. शुद्धस्वभाव के भान बिना व्रत-तपादि करें, उसे शुभभाव के फलस्वरूप हल्का पुण्य बंधता है, और मनुष्यपना मिलता है; मोक्ष नहीं मिलता अर्थात् चारगतिरूप परिभ्रमण नहीं छूटता । ३. वही, पृष्ठ ३८१ १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ ३७३ ३७४ २. वही, पृष्ठ ३८१ गाथा २५५ - २५७ १९९ ३. स्वरूप को विपरीत माननेवाले एवं कुदेव - कुगुरु की सेवापूजा - दान करनेवाले को शुभ के फल में निम्न जाति का पुण्य बंधता है, जिससे कुदेव व कुमनुष्यपना मिलता है; किन्तु मोक्ष नहीं मिलता । इसप्रकार विपरीतता के कारण संसार परिभ्रमण चलता ही रहता है। इसप्रकार चरणानुयोग में मिथ्यादृष्टि के पुण्य को यथावत् उसका फल स्पष्ट किया है। " उक्त गाथाओं और उनकी टीकाओं में सबकुछ मिलाकर यही कहा गया है कि जिसप्रकार बीज एक समान होने पर भी भूमि के भेद से फसल में अन्तर आ जाता है; उसीप्रकार शुभभाव समान होने पर भी ज्ञानी और अज्ञानी को एकसा फल नहीं मिलता; भिन्न-भिन्न मिलता है; केवल भिन्न-भिन्न ही नहीं, अपितु परस्पर विपरीत फल मिलता है। सर्वज्ञ भगवान द्वारा कहे गये तत्त्वों के श्रद्धानपूर्वक होनेवाले शुभभाव परम्परा मोक्ष के कारण कहे गये हैं; किन्तु अज्ञानी छद्मस्थ कथित तत्त्व विपरीतता के कारण हैं; अत: उनकी श्रद्धा करनेवालों के शुभभाव एकाध भव में अनुकूलता प्रदान करके अन्ततोगत्वा निगोद में ले जाते हैं। उन्हें जो एकाध भव की अनुकूलता प्राप्त होती है; वह सुदेव और सुमनुष्यत्व रूप भी हो सकती है और भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी देवों या कुमनुष्यों के रूप में भी हो सकती है । अत: शुभभाव और उनके फल में प्राप्त होनेवाली क्षणिक अनुकूलता में सुखबुद्धि छोड़कर वीतरागी सर्वज्ञदेव कथित तत्त्वज्ञान को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए । · १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ ३८२ पर्यायदृष्टि से देखने पर आत्मा में राग-द्वेष नजर आते हैं, पर द्रव्यदृष्टिवंत के पर्यायदृष्टि इतनी गौण हो गई है, विशेषकर अनुभूति के का में, कि उसमें विकार दृष्टिगत होता ही नहीं है। उसे विकार से क्या ? होगा तो होगा। ह्रतीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ- १३१
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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