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________________ प्रवचनसार गाथा २५८ - २५९ विगत गाथाओं में 'कारण की विपरीतता से फल की विपरीतता होती है' ह्र यह स्पष्ट करने के उपरान्त अब इन गाथाओं में यह बताते हैं कि कारण की विपरीतता से अविपरीत फल नहीं मिलता, अविपरीत फल तो अविपरीत कारण से ही होता है। गाथायें मूलत: इसप्रकार हैं ह्र जदि ते विसयकसाया पाव त्ति परूविदा व सत्थेसु । किह ते तप्पडिबद्धा पुरिसा णित्थारगा होंति ।। २५८ । । उवरदपावो पुरिसो समभावो धम्मिगेसु सव्वेसु । गुणसमिदिदोवसेवी हवदि स भागी सुमग्गस्स ।। २५९।। ( हरिगीत ) शास्त्र में ऐसा कहा कि पाप विषय कषाय हैं। जो पुरुष उनमें लीन वे कल्याणकारक किसतरह ॥ २५८ ॥ समभाव धार्मिकजनों में निष्पाप अर गुणवान हैं। सन्मार्गगामी वे श्रमण परमार्थ मग में मगन हैं ।। २५९ || शास्त्रों में ऐसा कहा गया है कि जब विषय-कषाय पाप हैं, तब उनसे प्रतिबद्ध (विषय-कषायों में लीन) पुरुष निस्तारक (पार लगाने वाले) कैसे हो सकते हैं? जिसका पापभाव रुक गया है, जो सभी धार्मिकों के प्रति समभाववान है और जो गुणों का सेवन करनेवाला है, वह पुरुष सुमार्ग का भागी होता है। आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “विषयकषाय तो पाप ही हैं, विषयकषायवान पुरुष भी पाप हैं और उन विषयकषायवान पुरुषों में अनुरक्त जीव भी पाप में अनुरक्त होने से पाप ही हैं। इसलिए जब विषयकषायवान पुरुष स्वानुरक्त पुरुषों को, पुण्य २०१ गाथा २५८ - २५९ के कारण भी नहीं होते तो फिर वे संसार से निस्तारक कैसे हो सकते हैं ? इसलिए उनसे अविपरीत फल सिद्ध नहीं होता । पाप के रुक जाने से सभी धार्मिकों के प्रति स्वयं मध्यस्थ होने से और गुण समूह का सेवन करने से जो श्रमण सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की युगपत् परिणति से रचित एकाग्रतारूप सुमार्ग के भागी हैं; वे श्रमण स्व और पर को मोक्ष व पुण्य के आयतन हैं; इसलिए वे अविपरीत फल के कारण हैं ह्र ऐसी प्रतीति करना चाहिए।" आचार्य जयसेन इन गाथाओं का भाव तात्पर्यवृत्ति टीका में मात्र दो-दो पंक्तियों में तत्त्वप्रदीपिका टीका के समान ही स्पष्ट कर देते हैं। इन गाथाओं के भाव को पंडित देवीदासजी एक-एक सवैया तेईसा में प्रस्तुत करते हैं; पर कविवर वृन्दावनदासजी १ मनहरण, १ दोहा और १ मत्तगयन्द में प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार है ह्र ( मनहरण ) इन्द्रिनि के भोगभाव विषय कहावैं और, क्रोधादिक भाव ते कषायरूप वरनी। इन्हें सर्व सिद्धांत में पाप ही मंथन करी, तथा इन्हें धारै सोऊ पापी उर धरनी ।। ऐसे पाप भारकरि भरे जे पुरुष ते सु, भक्तनि को कैसे सितारें निरवरनी। आपु न तरेंगे और न तारेंगे सु भक्तनि को, दोनों पाप भार भरे भोगें पाप करनी ||४३|| इन्द्रियों के भोगों को विषय कहते हैं और क्रोधादिक भावों को कषाय कहा जाता है। सर्व शास्त्रों का मंथन करें तो पायेंगे कि सभी जगह इन विषयकषायों को पाप ही कहा गया है और इन विषयकषायों को धारण करनेवाले भी पापी ही हैं ह्र ऐसा हृदय में धारण करना चाहिए। इसप्रकार के पापभार से भरे हुए पुरुष, भक्तों को कैसे तार सकते हैं ? ये लोग न तो स्वयं पार होंगे और न भक्तों को पार लगा सकते हैं। ये और
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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