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________________ १९६ प्रवचनसार अनुशीलन मग्न रहते हैं, उनका ध्यान करते हैं; वे निर्वाण की प्राप्ति तो नहीं कर पाते; पर शुभभावों के फल में देव और मनुष्यादि गति में उत्तम पद प्राप्त कर लेते हैं। तात्पर्य यह है कि अज्ञानीजन भी शुभभाव करके थोड़ी-बहुत अनुकूलता प्राप्त कर लेते हैं। (सवैया इकतीसा ) महासठ लोग जे न तिन्हि कैं सुभोपयोग । सुद्ध आतमा के जानपर्ने करि हीन हैं। क्रोध मान माया लोभवंत तिन्हि कैं न बोध । विषै रस भोग के विषै सदा सुलीन है ।। तिन्हेँ जे सु गुरु मानि सेवैं वैयावृत्त्य करें। प्रीति सौं अहार देत कहैं ये प्रवीन हैं ।। जाकौ फल पाइ ते निदान नीच देव होत । होत नर नीच पापी जे सु पराधीन है ।। ७७ ।। आत्मज्ञान हीन अज्ञानियों को उच्चकोटि का शुभोपयोग नहीं होता । क्रोध, मान, माया व लोभवाले ज्ञानहीन वे लोग पंचेन्द्रियों के विषयभोगों में लीन रहते हैं ह्र ऐसे लोगों को गुरु मानकर जो लोग उनकी सेवा करते हैं, वैयावृत्ति करते हैं, प्रीति से उन्हें आहार देते हैं और कहते हैं कि ये प्रवीण पुरुष हैं; उसके फल में निदान बंध के कारण वे पराधीन पापी लोग नीचजाति के देव और नीची जाति के मनुष्य होते हैं। आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "जिसप्रकार अनाज के बीज एक ही प्रकार के होने पर भी भूमि की विपरीतता से बीज की उत्पत्ति में भी विपरीतता होती है अर्थात् अच्छी भूमि में उस बीज का अच्छा फल उत्पन्न होता है और खराब भूमि में खराब फल उत्पन्न होता है अथवा उत्पन्न नहीं होता । मिट्टी के बर्तन में पकाई रसोई और तपेली में पकाई रसोई का स्वाद भिन्न-भिन्न होता है । कुएँ का पानी और नदी का पानी ह्न इन दोनों का भी गाथा २५५ - २५७ स्वाद भिन्न-भिन्न होता है। यहाँ शुभ के कारण में विपरीतता है; अतः कार्य में भी विपरीतता है। ज्ञानी के शुभभाव परम्परा से मोक्ष के कारण हैं और अज्ञानी के शुभभाव संसार का कारण हैं। १९७ गाथा २५४ में धर्मी के शुभराग की दिशा बताई थी और इस गाथा में अज्ञानी के शुभभाव की दिशा विपरीत होने से फल में भी विपरीतता होना बताया है। तत्त्व के तीव्र आराधक जीव सिद्धगति और तत्त्व के विराधक जीव निगोदगति प्राप्त करते हैं । आराधकतापूर्वक शुभभाव हो तो जीव देवगति में जाए, किन्तु संसार परिभ्रमण चलता रहता है तथा विराधकतापूर्वक अशुभभाव हो तो नरकगति में जाता है। पात्रता की विपरीतता से फल में भी विपरीतता आती है। धर्मी जीव सर्वज्ञ, सर्वज्ञ की वाणी और सर्वज्ञ की वाणी में आये हुये वस्तुस्वरूप का यथार्थ निर्णय करता है। वस्तुस्वरूप के विरुद्ध कहनेवाले देवादि को वंदन नहीं करता और सर्वज्ञ के प्रति शंका नहीं करता अज्ञानी जगत मानता है कि भगवान मदद करेंगे; किन्तु ऐसा मानने से पुण्य का नाश होता है और सर्वज्ञ का अनादर होता है। अतः जिसे पुण्य-पाप का आदर है, वह धर्म को नहीं जानता तथा धर्मी जीव पुण्यपाप के आधार से धर्म नहीं मानता । कारण की विपरीतता होने पर फल भी विपरीत ही होता है। छद्मस्थ अज्ञानी द्वारा कहा हुआ वस्तुस्वरूप कारण विपरीतता ही है। आत्मा में श्रद्धा - ज्ञान एकाग्रता को सर्वज्ञदेव धर्म कहते हैं और अज्ञानी पुण्यक्रिया में धर्म मानता है। इस जीव को आत्मा तथा देव-गुरुशास्त्र का भान नहीं है; इसलिये बाह्य साधनों में धर्म मानता है। अन्तर में १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ ३६४ ३. वही, पृष्ठ ३६५ २. वही, पृष्ठ ३६४ ४. वही, पृष्ठ ३७२
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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